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Showing posts from October, 2012

" उल्झन "

  " उल्झन " एक उल्झन सी रहती है अक्सर दिलो-दिमाग में किसे सच कहें किसे झूठ मान लें, कौन बड़ा है वक़्त यां जिंदगी, इस जहान में वक़्त खुदगर्ज, जिंदगी बेवफा है फिर किसके लिए आरज़ू रहती है इंसान में हर कोई उलझा हुआ, उथला हुआ, पुथला हुआ इस रंजिशे मैदान में एक-दूसरे से भिड़ता हुआ किसी को राह की तलाश किसी को वाह की तलाश कोई लहरों से खेलता कोई शोलों को झेलता जाने क्या सूरत होगी जिंदगी की, अब इसके अंजाम में एक मायूसी सी है एक ख़ामोशी सी है हर रिश्ते में छुपी एक नामोशी सी है कोई ठहराव नहीं कोई बहराव नहीं किस विश्वास पे विश्वास करें कोई जवाब नहीं किसे अपना कहें, साया भी नहीं अपना इस जहान में खुद से बेख़बर, भटकता है  दर-बदर कभी काबा कभी काशी, न जाने किस-किस डगर राहें तमाम है फिर भी कोई मंज़िल नहीं सागर में मौजें भी असीम है पर कोई साहिल नहीं किसने छोड़ दिया है डूबता हुआ, हमें इस मझधार में है कोई राह कहीं तो बताएं मुझे भी है कोई रहबर तो मिलाएं मुझे  भी मैं भी इस भटकन से आज़ाद होना चाहता हूँ इन  उलझनों से शाद-आबाद होना चाहता हूँ शायद ढूँढ लूँ अपना अक्स, मिट्टी के इस इं

( तनहाइयाँ )

( तनहाइयाँ ) खुद से भागते रहे यूँ दर बदर फिर भी पीछा करती रहीं परछाईयां तन्हाई में तो मुस्कुराते रहे थे हम मगर महफ़िल में रोती रही तनहाइयाँ जिनसे थी वफ़ा की उम्मीद हमें क्यों मिलती रही उनसे बेवफाईयां बहुत रुसवा हुए है इस जहाँ में आरज़ू अब जीने नहीं देती ये रुसवाईयां ( आरज़ू)

( वो पल )

( वो पल ) वो मिले आज मुझे कुछ इस तरह रूह ने जिस्म छोड़ दिया हो जिस तरह थे इतने करीब के छू लेते उन्हें पर हाथ बंधे थे लब सिले थे, शिकवा करते भी तो किन्हें दिल में समंदर  था सवालों का उमड़ता हुआ सांसों  में लावा था कोई सुलगता हुआ फिर एक बेबसी उसकी आँखों में झलक उठी बहुत रोका था उसने पर पलकों से छलक उठी हमने खुद को उसकी आँखों में मरता हुआ देखा अपनी मोहब्बत को तिल-तिल जलता हुआ देखा थे अकेले पर कभी इस कदर तन्हा न थे इतने करीब थे वो पर मीलों दूर से लगे  उसने अश्कों को रोका, हमने दिल को रोका उसने कदम बढ़ा दिए अपनी मंज़िल को और मेरी बेबसी ने फिर मुझको रोका (आरज़ू)

( किस्मत )

 (  किस्मत  ) किस्मत ने कड़ा इम्तिहान लिया आदत थी तो जीतता गया, जीतता गया कभी ग़ुरबत ने खेला मुझसे तो कभी मज़बूरी ने तो कभी ज़माना दीवार बना हिम्मत थी, तो हर दीवार गिराता गया, हराता गया ज़िंदगी के हर मोड़ पे मिले कितने मुझे तो जिंदगी से कैसा शिकवा था मुझे अचानक दूसरे ही मोड़ पर उसी ने  दगा हम से किया यूँ लगता था हर सागर पार कर लूँगा मैं किसी भी तूफ़ान से उभर लूँगा मैं पर एक बार इन नज़रों में क्या डूबा फिर डूबता गया, डूबता गया, डूबता गया सोचा था किस्मत हरा नहीं सकती मंजिल के लिए डरा नहीं सकती कर लिए थे फ़तेह कई रास्ते मंजिल के मगर, जीतने की जिद्द में अपनी जिंदगी हारता गया (आरज़ू)

( एक कसक )

( एक कसक ) जिंदगी गुजर गई एक  मिराज़ में जानता भी था के वो वहाँ नहीं है फिर भी ऐ दिल एक कसक है कहीं   कि वो यहीं है यहीं पे कहीं है  क्यों भटकता है दिल वीरान से राहों में धुंधले से अक्स को लिए निगाहों में चलती है ठंडी हवा तो ठहर जाता हूँ क्यों लगता है ये झोंके शायद वही है  दुनियां के कारवां में सब कहीं है तुम हो, मैं हूँ , पर वो  नहीं है सब चल रहें है साथ में लेकिन तुम हो, मैं हूँ, पर हम नहीं है किसे पुकारूँ किसे दूँ आवाज़ मैं  खुदी से ख़फ़ा ख़ुदी से नाराज़ मैं किसे छोड़ू किसे अपना बना लूँ जब अपना साया भी, अपना नहीं है     (आरज़ू)

( इंतज़ार और सही )

( इंतज़ार और सही ) मन में आता है इस दर्द की दुनिया से नाता तोड़ दूँ हर रिश्ते हर नाते से मुह मोड़ लूँ पर सोचता हूँ क्या कुसूर है उस नन्ही सी जान का क्या इस दर्द की दुनीया में उसे अकेला छोड़ दूँ यह सोचते ही मेरा होंसला पस्त हो गया जिसे देख रहा था ढलता हुआ वो अस्त हो गया जो लाली सी थी आसमां में, वो काली होने लगी देखते ही देखते हर ख़ुशी अँधेरे में खोने लगी कोई देता है तसल्ली यह रात भी कटेगी इस दर्द का भी अंत होगा, आँखों से यह धुंध भी छटेगी देख पयोगे फिर से वही सुनहरी किरन तुम सावन की वही घटा बिखेरेगी तुम पर छटा निर्मल हो जाओगे तुम फिर से एक बार कहता है कोई मेरा करना एतबार ख्वाब सा लगता है तो ख्वाब ही सही चाहे ग़म मिले बेशुमार ही सही हम देंगें वक़्त उसे पाने का उम्र भर भरोसा है तो थोडा सा इंतज़ार ही सही भरोसा है तो थोडा सा इंतज़ार और सही .. (आरज़ू)

( इंतज़ार )

(  इंतज़ार ) जाने उसका इतना इंतज़ार क्यों है जाने यह दिल इतना बेकरार क्यों है एक लम्हे में सिमट रही है यह जिंदगी जाने इसकी इतनी तेज़ रफ़्तार क्यों है हसरत है उन्हें देखते रहें यूँ ही उम्र भर पर हरपल ये आंखे इतनी सुर्ख़सार क्यों है हर आरज़ू सिमट जाती है उसकी बाँहों में आकर यह आरज़ू एक ज़र्रा और वो आफ़ताब क्यों है क्यों उड़ के उसे पाने की कोशिश करता हूँ मैं  उस सितारे की दूरी इतने मील हज़ार क्यों है आती है आहट तो धड़क जाता है यह दिल जाने उसका इतना इंतज़ार क्यों है न जाने मुझे उससे इतना प्यार क्यों है (आरज़ू)    

चाहत का एहसास

चाहत का एहसास  उसने प्यार से गले लगाया तो वो सुकून मिला जैसे मुददत बाद कोई भूला घर आया हो उनकी बाँहों में जब आया तो छलक उठी आँखें जैसे तरसी हुई खुशी को सीने लगाया हो उनके हाथो ने जब माथे को सहलाया तो ऐसा लगा जैसे दिल के छालों पे मरहम लगाया हो उनके गेसुओं की छाया यूँ थी मुझपे जैसे तपते सेहरे में घने बादलों की छाया हो उनकी गोद में जब सिर रखा तो धडकनें  यूँ थी मेरी जैसे कोई जिंदगी की दौड़ जीत कर आया हो उनके प्यार को जब पाया तो यह महसूस हुआ जैसे ताउम्र आरज़ू ज़िंदगी में कुछ न पाया हो (आरज़ू )

( क्यों मुस्कुराना पड़ा )

( क्यों मुस्कुराना पड़ा ) न जाने पलकों पे कितने ख्वाब उठाए चल रहा था वक़्त ने इतना थकाया के होश खोना पड़ा फिर हर हर ख्वाब से हाथ धोना पड़ा जिन होटों ने हर वक़्त कह्कही लगाई थी उन होटों को ज़ार-ज़ार रोना पड़ा जिस भी हसरत को गले से लगाया उस हर शय को क्यों खोना पड़ा एक मुददत से नसीब के साथ ज़द्दो ज़हद चलती रही पता नहीं वो कब जीत गया  सब कुछ और मुझे सब कुछ हारना पड़ा फिर किसी ने हाथ बढ़ाया अगर तो न जाने क्यों मुझे अपना हाथ पीछे हटाना पड़ा काश यह जिंदगी का बोझ इतना भारी  न होता काश रो सकते अपने हर दर्द को उजाले में भी पर मज़बूरी यह थी कि हमें हर दर्द को अँधेरे में भी छुपाना पड़ा न जाने मुझे क्यों मुस्कुराना पड़ा ( आरज़ू)

( भीड़ में चलता रहा )

( भीड़ में चलता रहा ) मैं जब भीड़ में चलता रहा फिर भी था तन्हा, अकेला बस इसी में आगे बढ़ता रहा मैं जब भीड़ में चलता रहा  कितने चेहरे थे मेरे आस-पास हर एक का अलग सा एहसास कुछ हसीं कुछ ग़मगीन, कुछ हसते कुछ मुस्कुराते उन सब से किनारा करता रहा मैं जब भीड़ में चलता रहा कभी मुस्कान देखता तो मुस्का देता कभी अश्क देखता तो भी हस देता जिंदगी ने ऐसा इम्तिहान लिया कि हर ज़ज्बात दिल को छलता रहा मैं जब भीड़ में चलता रहा इस कदर हुए रुसवा ज़िंदगी से आरज़ू कि घर के दरो दीवार भी अजनबी से लगे लोगों ने खींच दी इतनी लकीरें कि अपनी ही हद में सिकुड़ता रहा मैं जब भीड़ में चलता रहा (आरज़ू)

(रौशनी की तलाश)

(रौशनी की तलाश) न जाने किस राह को चुन कर चला था आज तक मंज़िल तलाश कर रहा हूँ इन खुली आँखों से कितने ख्वाब बोए थे आज भी उन टूटे सपनों को चुन रहा हूँ दिल तस्सवर करता है  एक अक्स को क्यों नहीं दिखता कबसे आंसू पोछ रहा हूँ कितने रास्ते मिले मुझे इस सफ़र में जाने किस मंज़िल की तलाश कर रहा हूँ  यह ज़िन्दगी एक अंधे कुँए सी लग रही है जाने कब से इस कुँए में गिरता जा रहा हूँ दिल कहता है वो  राह भी मिलेगी एक दिन वो तस्वीर भी साफ़ दिखेगी वो ख्वाब उभर आएगा इस अंधे कुँए से मैं शायद उस एक रौशनी की तलाश कर रहा हूँ (आरज़ू ) 

( कशिश )

( कशिश ) आज मिली है थोड़ी फुरसत तो थोडा सा जी लूँ जिंदगी गुज़र गई है फ़र्ज़ निभाने में आज हुई है वो बारिश तो चंद बूंदें  पी लूँ बहुत तदपा हूँ मैं  यह प्यास बुझाने में करीब दिखाई दी है मंजिल तो थोडा सा थम लूँ बहुत दौड़ा हूँ  इस मंज़िल को पाने में हो गए आज हर दर्द से आज़ाद तो थोडा मुस्कुरा लूँ बड़ा दर्द है यूँ  आंसू बहाने में आज मिला है मौका तो नज़रें मिला लूँ क्या रखा है यूँ आँखे चुराने में जब मिली है जिंदगी तो जी भर के जी लूँ क्या फायदा इसे व्यर्थ गंवाने में (आरज़ू )  

ग़ज़ल ( तेरी रौशनी)

ग़ज़ल बह्र> 1222 1222 1212 212 चमकती धूप तेरा रूप और यह चांदनी सब तरफ बिखरी है तेरी ही रौशनी यह बहार यह फुहार और यह फिज़ा   क्यों लगता है मुझे यह तेरी  है हँसी तेरी यह नज़र शराब की एक रहगुज़र मत पूछिये अब होंश में हम है के नहीं रुख से ज़रा ज़ुल्फे हटा दो न ऐ हुज़ूर अब सुकून कहीं और मिलता ही नहीं शर्मो हया के दश्त से गुज़रें कैसे भला बागी सा दिल मेरा अब सुनता ही नहीं जी चाहता है इश्क़ में मर जाऊँ आरज़ू तेरे बिना अब मेरा जी लगता ही नहीं (आरज़ू)

( कसौटी )

( कसौटी ) छीन के आँखों की रौशनी सावन की घटा दिखाता है तू कर के मेरे पांवों को घायल मंजिल का रास्ता बताता है तू चलूँगा फिर भी इच्छा शक्ति से मैं और मन की आँखों से प्रकाशमान हूँ तू रख दे कोई भी कसौटी सामने खरा उतरूंगा अब मैं वो इंसान हूँ (आरज़ू)

( धूल का फूल )

( धूल का फूल ) क्या कीमत है रौशनी की मत बताओ मुझे  अंधेरों में पला हूँ मैं है कितनी दूर मंजिल का रास्ता जानता हूँ   सदियों पैदल चला हूँ मैं क्या मिटाएगी ज़माने की गर्दिश की आग तपते सूरज की तरह जला हूँ  मैं निकाल लेंगे अपनी कश्ती को मझधार से सागर की बूंद-बूंद  में घुल गया हूँ मैं मत कोशिश कर तोड़ने की मुझे ऐ आंधियो इसी धुल का फूल बन कर खिल गया हूँ मैं (आरज़ू)

( वो प्रभात बाकी है )

( वो प्रभात बाकी है ) ढल गई है शाम मगर  रात अभी बाकी है था अंगारों भरा रास्ता मगर चलते रहे कभी सुलगे अरमां कभी जलते रहे करना होगा ये पथ पार,एक आस अभी बाकी है  ढल गई है शाम मगर रात अभी बाकी है थी सिसकती खुशियाँ, मुश्किल में ज़ज्बात थे क्या करते क्या न करते कुछ ऐसे हालात थे चलते रहना होगा क्योकि सफ़र अभी बाकी है ढल गई है शाम मगर रात अभी बाकी है एक रोशन सा साया एक मखमली सा एहसास था थे हज़ारों वहां, पर कोई मेरे आस न पास था ये तृष्णा थी यां मृगतृष्णा पर प्यास अभी बाकी है ढल गई है शाम मगर रात अभी बाकी है तोड़ दी हर ज़ंजीर मैंने कर दिया आज़ाद खुद को निकल आये इस धुंध से दिख रहा है साफ़ मुझको बढ़ा दिए मंजिल को कदम बस कुछ लम्हात बाकी है ढल गई है रात बस अब प्रभात मेरी बाकी है (आरज़ू    

( तुम्हें चलना होगा )

  ( तुम्हें चलना होगा ) ऐ  मुसाफिर तू  मत हो निराश  तू कर्म कर मत हो यूँ उदास  क्यों बैठा है यूँ तुम्हें चलना होगा  मंजिल है अभी दूर तुम्हे चलना होगा परिंदों की तरह क्यों मन है चंचल  झरनों की तरह क्यों दिल में हलचल  नदी की धा रा सा तुम्हें संभालना होगा  मंजिल है अभी दूर तुम्हे चलना होगा   यह जिंदगी है पाषाण तू अदना सा इंसान बांध कर हिम्मत की मुट्ठी कर ले घमासान यही सच है राही तुम्हे इसी में पलना होगा मंजिल है अभी दूर तुम्हे चलना होगा है शूलों का रास्ता और शोलों से वास्ता ग़मगीन है पानी पीने को और दर्दो का नाश्ता कस ले अपनी कमर अब इसी में ढलना होगा मंजिल है अभी दूर तुम्हे चलना होगा  देख ! वृक्षों पे नई कोंपले फूटते हुए  यह जीर्ण से पत्ते शाख से टूटते हुए  बदल  गया है युग, तुम्हें भी बदलना होगा  मंजिल है अभी दूर तुम्हे चलना होगा ( आरज़ू )

( हम भी सफ़र करते है )

( हम भी सफ़र करते है ) अब वो आहट सुनाई  नहीं देती अब वो तस्वीर  दिखाई नहीं देती  उतना ही शोर है आस-पास मगर  वो आवाज़ अब सुनाई नहीं देती  घडी तो चल रही है पर आवाज़ बंद है दिल भी धडकता है पर धड़कन मंद है  किस उम्मीद के भँवर में हूँ मैं  कोई मोड़ है आगे, या हर राह बंद है   कोई बेकरारी नहीं आँखों में खुमारी नहीं  किसी तरह की ख़ुशी और ग़म भी नहीं  जिंदगी किस सफ़र पे चल रही है आरज़ू  हर कोई तन्हा है यहाँ कोई हमदम भी नहीं  सब मुसाफिर है इस दुनिया के, सफ़र करते है  राह के ज़ख्मों को  खुद ही मरहम करते है  फिर क्यों शिकवा, कैसा गिला कोई मिला या न मिला   काट के सब बंधन-बेड़ियाँ चलो हम भी सफ़र करते है  (आरज़ू)     

( सहर आने को है )

( सहर आने  को है )  मेरी उम्मीदों के सिरे कभी इधर तो कभी उधर गिरे यह सोचता हूँ कैसे समेटूं किसे पकडूँ किसे लपेटूं हर सिरा बिखरा हुआ उलझा हुआ इस अन्धकार से लिपटा हुआ कोई तो रौशनी दिखे कोई तो राह मिले तू डर न सिहर न ये रात जाने को है आखरी पहर है सहर आने को है मत सोच कौन है कौन था किसका साथ मिला कौन बिछड़ गया  किसने उम्मीदों की फ़सल उगाई किसने फ़सल में आग लगाई यह ज़मीन तेरी आसमां तेरा यह हिम्मत तेरी यह होंसला तेरा तू क्यों डरे क्यों मरे जब अंग संग है रहनुमा तेरा यह गर्दिश की आंधी भी थम जाने को है आखरी पहर है सहर आने को है यह जीवन की बगिया और जीने की प्यास ये  बूँदें ही इसकी उलझन और एक त्रास है फूलों पे तितलियाँ और  भवरें भी शाख की नमी और कंटकों के पहरे भी फिर यह मौसम इतना तूफानी क्यों फिर ये बूंदें इतनी बर्फानी क्यों तूं थम जा कही ठहर जा  कहीं इन  मेघों के पीछे छुपी किरन है कहीं यह तूफानी रात भी अब गुजर जाने को है आखरी पहर है सहर आने को है जब इतना इंतजार किया चंद लम्हे और सही जब इतने अश्क पिए चंद आंसू और सही क्या है इस इंतजार के पार और अश्कों का सार

( एक आवाज़ सुनी थी )

( एक आवाज़ सुनी थी ) कल एक अवाज़ सुनी थी शायद कुछ टूट रहा था कुछ बिखर गया था या कुछ फूट रहा था क्या था क्यों था कुछ समझ न पाया बहुत सोचा था मैंने पर समझ न आया धुंध में एक साया, पत्तों की सरसराहट वही घुँघरूओं की आवाज़ और कदमों की आहट देखा हर एक कोना फिर भी कोई छूट रहा था कल एक आवाज़ सुनी थी शायद कुछ टूट रहा था   धड़कने कुछ तेज़ थी उसे समझाया था मैंने शायद  किसीसे रूठा था उसे मनाया था मैंने फिर एक याद ने ज़हन को दस्तक दी उसी वक़्त मेरे दिल ने एक हरकत की एक टीस थी,एक दर्द था और एक आह थी वही मोड़ था, वही गली थी और वही राह थी मगर!  एक काँच का मकान कहीं से फूट रहा था कल एक आवाज़ सुनी थी शायद कुछ टूट रहा था धड़कने बढ़ी और साँसों की रफ़्तार तेज़ थी चेहरा भीगा हुआ और आंखे निस्तेज थी पर मुझे वो आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगी यादों में जो तस्वीर थी, दिखाई देने लगी वही चेहरा, वही साया और वही बेदर्द आँखें मेरा मन भीतर कुछ कांच के टुकड़ों को झांके अरे! यह तो मैं था और मेरा ही दिल टूट रहा था कल एक आवाज़ सुनी थी शायद कुछ टूट रहा था                                      (आरज़ू)

( कंधे कुछ नाराज़ से है )

  ( कंधे कुछ नाराज़ से है ) यह दुनिया के बंधन हर रिश्ते को निभाना है सिर्फ वक़्त गुजरा है मगर वही फ़साना है कई रीतें बनी कई बनाई गई कई इबारतें लिखी फिर मिटाई गई सब बढ़ रहे थे इस चिलचिलाती धूप में कभी इस तो कभी उस रूप में क्यों ये पथरीले रास्ते इतने ख़राब से है न जाने क्यों ये कंधे कुछ नाराज़ से है अपने तो साथ है फिर क्यों अपनापन नहीं आंखें भी सोती है फिर क्यों कोई सपना नहीं बहुत सी बातों को यह मन उलझा रहा और यह दिल कैसे-2 उन्हें सुलझा रहा इन सांसों का शोर और बेड़ियों का ज़ोर क्यों बढ़ने नहीं देती मुझे मंजिल की ओर इन उलझनों के रूप क्यों इतने विराट से है न जाने क्यों ये कंधे कुछ नाराज़ से है बहुत दौड़ते रहे अब चला नहीं जाता कितने सागर पार किए, अब जला नहीं जाता मैं भी उन शबनम की बूंदों को तलाश करता हूँ इसलिए इस सेहरा में न जीता हूँ न मरता हूँ ऐ मेघो! बहुत प्यासा हूँ, शबनम बरसाओ बहुत तरसा हूँ अब और न तरसाओ देख! मेरी धड़कने कितनी बदहवास से है न जाने क्यों ये कंधे कुछ नाराज़ से है मुझे आगे बढ़ना है, मेरा साथ दो मैं थक जाऊँ कहीं, मुझे हाथ दो गर यह जीवन चुनौती है तो

( जलती मानवता )

( जलती मानवता ) चंद अल्फाजों ने इंसान एक काम कर दिया  किसी को हिन्दू लिखा किसी को मुसलमां कर दिया लोगों ने गीता और क़ुरान तो पढ़े  जाने क्या सीखा के इंसानियत को शर्मसार कर दिया  इस धर्म की लड़ाई में तेरे ही बन्दों ने, न जाने कितने मासूमो को कुर्बान कर दिया  क्यों नहीं देखता इन्सां काग़ज कलम किताबों को क्यों नहीं समझता इन्सां मोहब्बत के हिसाबों को   पंडित और मौलवी न जाने किस जंग में शुमार है  ज़मीं तेरी आसमा तेरा फिर किस बात का खुमार है  तेरी बगिया से खुशबु ढूंढ़ता रहता हूँ मैं  जिस बगिया को दिया था तूने हमने रेगिस्तान कर दिया  तेरे बाग बगीचों को बंकर बनते देखा  तेरे भी आशियाने को कंकर बनते देखा  बांसुरी की आवाज से ज्यादा बंदूक की आवाज गूंजे  दर पे तेरे भजन नहीं, अब सिक्कों की आवाज गूंजे  सच्ची भक्ति श्रद्धा को धूप में झुलसते देखूँ  मैं  आज तेरे ही दर पे लोगों ने दौलत को भगवन कर दिया  देख कर अपने बन्दे बिलखता तो होगा तू  भी  जलते सुलगते देख उन्हें सुलगता तो होगा तू भी  मिलता नहीं सुकून इन पीर दरबारों से अब कहीं  यह मंदिर मस्जिद तेर

( अनकही सी )

( अनकही सी ) हमें शिकायत थी उनके खामोश लबों से  और नम आँखों से, नहीं जानते थे होंटों का थरथराना क्या होता है  आँखों का नम हो जाना क्या होता है  उसने जाने कितने सुलगते अंगारों को  सीने में छुपा रखा था  नहीं जानते थे  ग़म को भुला कर  मुस्कुराना क्या होता है  हमने जब भी उसे देखा पुरनम सा मुस्कुराता हुआ सा देखा  नहीं जानते थे छलकती  आँखों से  मुस्कुराना क्या होता है  हर इलज़ाम को उसने सिर-माथे लिया होगा  उसकी ख़ामोशी का क्या मोल लगा दिया होगा    नहीं जानते थे मोहब्बत में खुदका   नीलाम हो जाना क्या होता है  इजहारे मोहब्बत करना  तो  फिर भी आसान था ऐ आरज़ू  नहीं जानते थे प्यार दिल में छुपा के  सिसक जाना क्या होता है    ( आरज़ू )  

" तलाश "

                 " तलाश   " एक धुंध सी छाई है मेरे हर तरफ धुंधली सी जमीन धुँधला आसमान है यादो में धुंधलापन कुछ पास होने का एहसास है  दिखते ही ओझल सा हो जाता है उस तरफ ये  लहराती हवा है या कोई  आँचल गया है सरक बस एक बेचैनी सी बिखरी है मेरे हर  तरफ; इन पर्बतो से बाते करती ये  घनघोर घटायें  वादियों मे गूंजती कुछ जानी-पहचानी सी सदायें यह पेड़ों की घनी कतारें कुछ छिपा रही है इनकी खामोश सी आहट  कुछ बता रही है मन में कशमकश है  मैं जा रहा हूँ किस तरफ बस एक बेचैनी सी बिखरी है मेरे हर तरफ यह खुली-2 सी राहें, यह अन्सोई सी निगाहें किसे पुकार रही है  फैला के अपनी बाहें आवाजे दूर तक जाती फिर खो जाती धड़कने सवाल उठाती  फिर चुप हो जाती क्या समझाना चाहती है, दूर तक फैली बरफ बस एक बेचैनी सी बिखरी है मेरे हर तरफ यह मंजिलें रास्तो की आवारगी कुछ समझा रही है पर्वतों से गले मिल यह घटाएं क्या बता रही है शिखरों पे फैली बर्फ की चादर  में  एक सन्नाटा है इतने  रास्तो मे कौन  सा रास्ता उस ओर जाता है जाने क्या  तलाश रहा हूँ मैं यूँ  दर बदर क्यों एक

" एक रास्ता "

" एक रास्ता " यह हस्ता खेलता  फूलों सा बचपन  और जीवन से संघर्ष करती जवानी  यह सपनो से भरी हुई नज़रें  और ज़ज़बातों से भरी हर कहानी  फिर मंजिल को तलाशती  यह राहें  कहीं थकन है कदमो में, तो  कहीं थकान से चूर हैं ये बाहें  यह खुशीओं की खुश्बू  खो गई है  यां ग़म की बगिया में दिए छुपाये चलो चंद फूल खुशियो के  इस बगिया से हम भी चुराएँ  यह इंसान ज़ज्बातों से क्यों खेलता फिर नफरतों की आग को खुद ही झेलता  नफरत से देखे, नफरत से मारे  अपनी ही आग में झुलस रहे  सारे  अपनी ही लाश को कंधों पे लिए  एक  अंजान से सफ़र पे चल दिए  ना ओर है  न छोर है कोई  न निशा है न भोर है कोई  इस नफ़रत की शमशान में क्यों  अपने अरमानो की चिता जलायें  बहुत हो गया चलो प्रेम की जोत जलायें किस तरफ भाग रहे, यह कैसी दौड़ है  जिंदगी कहीं नहीं, यह कैसा मोड़ है  क़दमों को घायल करते यह पथरीले रास्ते  समतल धरा है  कही यां केवल रोड़ है  जितने मोकाम आये इस सफ़र में  उतनी जिंदगी के पल खो दिए  हमने  इस जिंदगी के गुलशन में कांटे बो दिए  क्यों अपनी जिंदगी को कांटो

( ज़ज़्बात )

( ज़ज़्बात )   1.  यह कैसी आज़ादी  है  हरेक  की आवाज़ इस ग़ुरबत और मायूसी ने दबा दी है  कब तक सहेंगे इस तपिश को हम , यह किसने आग लगा दी है . (आरज़ू ) 2.  खुदा ने इंसान बनाया इंसान ने खुदा ही बाँट डाला  उसने तो बक्शी थी इक ही धरती एक ही आसमां  हमने सरहदे काटी और आसमान बाँट डाला . (आरज़ू) 3.  इस दिल की महफ़िल में  तो जली  मगर अरमान ही जलते रहे, दिल ने किस-2 को न पुकारा होगा  मगर सब हमदर्द मुह फेर के चलते रहे। (आरज़ू) 4.  कब से दिल की खामोश चीखों को सुनता रहा था  आज तकलीफ़ इतनी हुई के उसे आवाज़ मिल गई (आरज़ू) 5. इस मतलब की दुनियां में भरोसा करे करें  तो किस पे  अँधेरा होते ही अपना  साया भी साथ छोड़ देता है आरज़ू .. (आरज़ू) 6.  इस कदर हुए इस जिंदगी से रुसवा ए आरज़ू  घर के दरो दीवार भी अजनबी से लगने लगे। (आरज़ू)  7.  आइना साफ़ करके क्या देखता रहा था आरज़ू  वक़्त ने आंसू क्या पोंछे हर  चेरहा साफ़ दिखने  लगा।   (आरज़ू) 8.  हमने पलकें  क्या बंद की हर मंज़र बदल गया  फूलों सा महकता था कभी, आज शोलों सा सुलग गया  (आरज़ू) 9.  हम देखते रहे उनकी नफरतों को हसरत

( कारवाँ )

( कारवाँ ) इस कारवां में लोग नंगे पाँव चलते रहे  हर तरफ जिंदा लाशें चलती फिरती थी  कुछ इस मौत से तो कुछ इस जिंदगी से मरते रहे  आँखों के सपने और दिल की  धड़कन तक नीलाम थी इस आग में न जाने वो कब से जलते रहे  लाखों  ख्वाहिशों ने इस कारवां में दम तोड़ दिया  लोग फिर भी उनकी लाशों पर से गुजरते रहे  इस कारवां में लोगो को आगे तो बढते देखा  पर वो अपनी ही लाश को मंजिल तक ढोते रहे (आरज़ू )

( जीने की चाह )

  ( जीने की चाह ) था हाथ उनका और साथ उनका  फिर छूटा हाथ और साथ उनका  क्या जिंदगी रुक गई  थे एक जिस्म एक जान  फिर दिल जुदा हुए, जान जुदा हुई  क्या धड़कन रुक गई  थे हमराही हमकदम  उसने राहें बदलीं हमने मंजिल  क्या ज़िंदगी की गाड़ी रुक गई वो प्यार उनका इकरार उनका  फिर बदली नज़र और इनकार उनका  क्या किसी की नब्ज़ रुक गई ज़िंदगी है बेरहम, बेशर्म न रुकी न थकी किसी का दर्द न जानता न पहचानता फिर भी यारो ! क्या ज़िंदगी जीने की चाहत रुक गई।  नहीं न (आरज़ू )

( वफ़ा )

 ( वफ़ा ) अंगारों पे कलियाँ खिला रहा था  कोंपले कहाँ से फूटती  हवाओं पे आशियां बना रहा था  बुनियादे कहाँ से पड़ती  भीड़ में तन्हाई ढूँढता था  ख़ामोशी कहाँ से मिलती  खुदगर्जों की दुनिया में वफ़ा कर ली  सच्ची मोहब्ब त कहाँ  से मिलती।  (आरज़ू )

( मैंने अक्सर देखा है )

( मैंने अक्सर देखा है ) मैंने अक्सर देखा है  शाख से फूलों को टूटते  फ़लक  से तारों को टूटते  काँच सा दिल को  टूटते  और फिर.. कलियाँ शाख पे खिलते  फ़लक पे नए सितारों को जगमगाते  और दिल के जख्मों को भरते  मैंने अक्सर देखा है ...देखा है  जिंदगी की रफ़्तार को रुकते  पलकों से अश्कों को ढलते  अरमानो को बेदर्दी से मसलते  और फिर.. नई राहों  को कदम तलाशते  नम आँखों को मुस्कुराते  फिर से अरमानो को घर बसाते  मैंने अक्सर देखा है, कभी! इन्सान को खुदा से झगड़ते  प्यार और वफ़ा को बदलते  बेबसी पे किसी को हस्ते  और फिर....  अश्कों से खुदा का दर धोते  वफ़ा के लिए उनको तरसते   बेबसी पे उनको भी तड़पते  मैंने अक्सर देखा है .. हाँ...   मैंने अक्सर देखा है....                          (आरज़ू)

( मेरा आशियाना )

( मेरा आशियाना )   फिर से हवाएं तेज़ चलने लगी  फिर से एक बेचैनी बढ़ने लगी   फ़िक्र उन तिनको की नहीं थी   जो सेहरा से चुन कर लाये थे फ़िक्र दरो-दीवारों की नहीं थी  जो मेरे सपने बुन कर लाये थे  डर था उस आशियाने का  और इस बेदर्द ज़माने का, फिर ! किसी ने चिंगारी फेंकी इस तरफ  मेरे सूखे तिनके थे जिस तरफ  मैने आशियाने को खाक होते देखा  उन सपनो को राख होते देखा  बात एक चिंगारी की नहीं थी  जो किसी ने मेरी ओर फेंकी  ग़म उन तेज़ हवाओं का था   जिसने अरमानो की चिता सेकी  मैंने राख के ढेर से उन सपनो को समेटा  बचे तिनकों को बड़े अरमानो से लपेटा फिर से तिनको का एक आशियाँ जोडूँगा  तुम चलना हवाओ जितनी भी चाहे तेज़  तुम हवाओं का मुह अब मैं  भी तोड़ूँगा   टकराना मेरे खवाबो से चाहे जितनी बार  पर समझ लो तुम भी इस बार  अब मैं भी सपने  देखना नहीं छोड़ूँगा  (आरज़ू)