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Showing posts from September, 2015

"तेरा अक़्स मिले "

"तेरा अक़्स मिले "  तेरे संग मैं देखूँ सुबह तेरे संग मेरी शाम ढले तू बसा हो मेरी सांसों में तेरी साँस से मेरी साँस चले फिर थाम कर तेरी बाहों को यूँ हीं अंजान सी राहों को तेरे पैरों के निशान पर मेरे पैरों के निशान पड़े तू रुके तो थम जाऊं मैं तू चले बढ़ जाऊं मैं तू थके तो करूँ जुल्फों की छाया तू हसे तो लगे कुदरत की माया ये ज़मीन भी आसमां भी मेरे संग तेरा सजदा करे तेरी आँखों में मंजिल हो मेरी और बातों में  मंजिल का पता तेरी राहों की रौशनी खातिर मेरे ये दो नैन जलते रहें  मैं खुद को भी भूल जाऊं तेरे सीने से लगकर आरज़ू तुझे हर जन्म में पाने की खातिर मेरी दुआओं का सिलसिला चले जब बंद होंगी आँखे मेरी तो खोल कर देखना ज़रूर मैंने ख़ुदा से कह रखा है   मेरी आँखों में तेरा अक्स मिले. मैंने ख़ुदा से कह रखा है   मेरी आँखों में तेरा अक्स मिले.  आरज़ू-ए-अर्जुन    

" मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ "

" वो चौराहा " मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ जहाँ से ये सफर शुरू किया था बड़ी मुश्किल से एक राह चुनी थी बड़ा लम्बा सफर तैय किया था मगर अब क्या ? फिर से एक राह चुननी पड़ेगी ? फिर से एक सफर तैय करना पड़ेगा ? मैं इस राह को तो जानता हूँ  ! इसका आखरी मोड़ दिल से होकर गुजरता है वहाँ थकान जैसे ख़त्म सी हो जाती है और दिल वो ख्वाब बुनने लगता है जिसका तसव्वर उसने कभी किया ही नहीं एक उलझन सी होने लगती है हर घडी और ये मन उलझना भी तो चाहता है इसमें छोटी छोटी बेकरारी सी रहती है रोज़ एक नई तैयारी सी रहती है खिला खिला सा चेहरा चाँद को भी रोज़ जलने पे मज़बूर कर देता है हर रात को चुनिंदा सितारों से भर देता है एक मखमली सा साया होता है जिस में ये दिल बार बार खोता है फिर यह राह एक खेल खेलती है बांध कर हाथ और पैर, एक अग्निकुंड में ठेलती है और कुछ वक़्त मिलता है निकलने का मैं अपनी बेड़ियाँ इसी अग्निकुंड में पिघलाकर बाहर आया जब निकला तो देखा, न तो वो राह थी  न ही वो मखमली सा साया बस मैं था और एक अँधेरी गली जिसमें मैं चलता रहा, चलता रहा..  मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ ज

" खरपतवार "

" खरपतवार "    खेत किनारे बैठ कर किसानों को मैं देख रहा हूँ तन पे ढीले ढाले कपडे सर पे एक ढीली पगड़ी है भिन्न -२ से दिखते हैं वो पर मेहनत उनकी सम तगड़ी है धूप-छाँव की परवाह किसे है बस खेत जोतने की दौड़ लगी है घर बार की चिंता तो है पर फसल उगाने की होड़ लगी है पूरा परिवार एकजुट होकर कर रहा है खेत की तैयारी घास तिनकों को उखाड़ते जाते साफ़ कर रहे एक एक क्यारी देख उन्हें मन में एक सवाल उठा फिर मैंने उनसे पूछ लिया क्यों तोड़ते हैं ये तिनके क्या कोई ये है हथियार ?  वो बोले उससे भी खतरनाक, क्योकि ये है खरपतवार ! पढ़ा था मैंने कभी कक्षा में कि खरपतवार क्या होता है ये रोकती है विकास फसलों का ऐसा प्रभाव इनका होता है समझ बूझ सब बातों को मेरे मन में कुछ आये सवाल मैं जहां रहता हूँ शहर में वहां भी उग रहे हैं बवाल जब किसी का बच्चा कहीं स्कूल पढ़ने को जाता है सीट की चिंता बाप को रहती इसलिए मोटी रकम साथ में लाता है ये सीट की चिंता और बढ़ती है जब बच्चा कॉलेज में जाता है अपने वजन के जितना पैसा बाप कॉलेज में जमा करवाता है फिर छिनते देख अपने हकों को विद्यार्थी करते खुद पे वार उखाड़ना ह

" मन और मानव "

" मन और मानव " यह नदी  का किनारा और दूर तक फैले सब्ज़, बेल-बूटे हवाओ में नमी, भीनी सी खुशबू फूल कलियाँ शाख से टूटे मानो दिल को जैसे बहलाती है पत्थरों से टकराता हुआ ये चांदी सा चमकीला पानी कलकल करती इसकी लहरें और नृतमई इसकी रवानी बस ऐसे ही कहीं गुजरती जाती है वादियों में मधुर सा शोर जो फैला है मेरे चारो ओर मन को कर रहा है सराबोर एक अजीब सी राहत का एहसास करवाती है पेड़ों पे सजे हुए घोंसले और अजनबी परिंदों की चहक ख़ुशी से हवा में झूलते पेड़ पौधे और हवा में रिसती उनकी महक एक रुहानगी का तारुफ़ करवाती है किनारे से चोटी तक फैली हुई ये चट्टानों की ठोस दीवार और उनसे गले मिलने को ये नाज़ुक बेल-बूटे कितने बेकरार अंततः चोटी तक पहुँच भी जाती है फिर दूर किसी शिकारे से एक आवाज़ फ़िज़ा में घुल जाती है  नदी, वन, उपवन को जैसे एक नशीली तरंग मिल जाती है जिसमे ये कायनात सिमट सी जाती है फिर सूरज ढलते ही उसी शिकारे से फिर से एक आवाज़ आती है पर वन, उपवन और नदी है शांत परिंदों की आवाज भी थम जाती है शायद बिरह का दुःख सुर में पाती है नदी में अब नहीं हलचल है पर दिल मे

" चलते चलते "

" चलते चलते "  बहुत तनहा है इन राहों पे हम दो कदम ही सही साथ तो दो तुझे पुकारती है ये राहें कब से कहीं से ही सही हाथ तो दो ये दिल महसूस करना चाहता है तुझे सीने से लगाकर वो एहसास तो दो संग तेरे भीगना चाहता है यह मन मोहब्बत से भरी वो बरसात तो दो हाथो में हाथ लिए बस चलता रहूँ उम्रभर वो शबनमी सहर और महकती रात तो दो होंगे जवाब तमाम मेरी आँखों में सनम मेरी आँखों में देखकर चंद सवालात तो दो जी लूंगा मैं उन हसीं यादों के सहारे तेरी चाहत में डूबे वो लम्हात तो दो एक बार जुबाँ से इज़हार तो कर भीगी पलकों से वो ज़ज़्बात तो दो मैं मिट के भी सजा सकता हूँ तुझे झूठा ही सही एक वादा ख़ास तो दो नहीं चाहता मैं मर जाऊं ऐसे ही हमनशीं इस अंजानी चाहत को एक पहचान तो दो. आरज़ू-ए-अर्जुन  

" चुभन "

" चुभन " बड़ा सुकून है तेरी बाहों में आकर अब तक दुनिया में यूँ ही भटकता रहा। तेरी धड़कनों को सुनकर वो राहत मिली जिसकी आरज़ू मैं बरसो से करता रहा। समेट लो इसकदर अपनी बाहों में मुझे कि समा जाऊ तुझमे, जो अबतक कहीं बिखरता रहा। किसी जन्नत की आरज़ू नहीं थी मुझे तेरी आँखों में बसने की तमन्ना करता रहा। गुजरी है ज़िंदगी मेरी कुछ इस तरह बेवजह सा जीता रहा बेवजह मरता रहा। इन जख्मों से कहाँ डरता था मैं आरज़ू खुद ही गिर गिर के संभालता रहा। दिल में रंज होटो पे हसी सजाते थे लोग इसे ही सच्ची मुस्कुराहट समझता रहा।  मैं पूछता था इन हवाओ से मंजिल का पता जब भी इन पेचीदा राहों से गुजरता रहा। नहीं मिला सुकून ज़िंदगी की कशमकश में खुदी की आग में अब तक सुलगता रहा। बड़ा सुकून है तेरी बाहों में आकर अब तक दुनिया में यूँ ही भटकता रहा। आरज़ू-ए-अर्जुन 

" मैं काफ़िर हूँ "

" मैं काफ़िर हूँ "  मज़हब की इस दुनिया में सब धर्मों के लोग मिले मैं अंजाना पहचानू न ये मजहब और जो लोग मिले मैं देखूं जहाँ भी ये मौला तेरा नूर इंसां इंसा में मिले मैं दीन धर्म को जानूँ न मैं मजहब को पह्चानूं न मैं कौन हूँ मौला ये तो बता तेरे नूर ने सब को रौशन किया तेरी चौखट पे मैं हाज़िर हूँ वो कहते है मैं काफ़िर हूँ है रंग लहू का लाल मेरा क्या उनका लहू है लाल नहीं मैं पहली बार माँ बोला था वो हिन्दू मुसलमा बोले कहीं इस पानी को रोक सकेगा कोई सागर से मिलने जाने को इस हवा को टॉक सकेगा कोई सांसो में घुलने जाने को ये खुशबू सीना तान खड़ी हर गुलशन ये महकाने को तेरी चौखट पे मैं हाज़िर हूँ वो कहते है मैं काफ़िर हूँ हम एक मालिक के बन्दे है इस दीन धर्म से बांटों न तुम हम इन्सां है इस बगिया के नफरत की धार से काटो न तुम ये धर्म ज़हर अब बन बैठा ये विष का प्याला चाटो न तुम ये जीवन मिला तो कर्म कमा यूँ  नफरत को गांठो न तुम अमन की राह मुश्किल तो नहीं धर्म की चादर से ढांपो न तुम   तेरी चौखट पे मैं हाज़िर हूँ वो कहते है मैं काफ़िर हूँ  हर इन्सां का है फ़र्ज़ यही इ

" एक आरज़ू सी है "

   " एक आरज़ू सी है " एक आरज़ू सी है ये ज़िंदगी, गुजरे तेरी पलकों के तले, और तेरे हर ख्वाब में मेरा ज़िक्र सा हो। तेरी हसी से दिल को सुकून मिले और तेरी बातों में मुझे खोने का फ़िक्र सा हो  । कभी पी लूँ उन आंसुओ को भी तेरे जो किसी दर्द की वजह से छलकते से हो, कभी जी लूँ उन सपनों को तेरे जो झूमते से आँखों में झलकते से हों। तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव मेरे चेहरे पर बिखरी रहे यूँ ही सदा ये ज़माने की धूप मेरे चेहरे पर  फिर पड़ती  न हो। कोई शोर न हो दरम्यां हमारे सिवाए सांसों और धड़कनों के, नज़रें समझती हो वो ज़बाँ जो हमारे होटों से बयां न हो। तेरी गोद में सर रख कर तुझे देखता रहूँ मैं  एकटक  और कई जन्मों तक तुझे पाने का तसव्वर सा हो। फिर शर्मा कर तू मेरी आँखों को अपनी हथेलियों से बंद करे, और माथे को होटों से तू चूमता सा हो ।  आखिर में तुझे सीने से लगाकर मैं भूल जाऊं इस दर्द की दुनिया को बस, तुझे पाकर किसी और ख्वाहिश की फिर कोई तमन्ना न हो  ।    आरज़ू-ए-अर्जुन   

" ये कौन सा शहर है "

" ये कौन सा शहर है " ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है सरहदो में कैद बस रंगीन सी इमारतें और इनमें बस्ते ये रबड़ के इंसान, जो चलते है, फिरते है, जागते है, सोते है और फिर इस भीड़ का हिस्सा हो जाते है बहुत काली सी रात और धुंधली सी सहर है ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है सुबह के पत्तों की तरह ताज़गी है चेहरे पर मगर दोपहर गए झुलस से जाते है कहीं ये सपनो में डूबी आँखें है या आँखों में तैरते सपने ये बताना मुश्किल है कि कौन सा सपना पहले ये अच्छा, यह बुरा बस बदल सी जाती नज़र है ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है क़दमों की बात करें तो ये थके नहीं है बस बेइरादे भटकते रहते है दर बदर ये कंधे लगातार नीचे की ओर झुके से रहते है और हथेलियाँ पसीने से तर रहती है कब सुबह होगी कब शाम ढलेगी इसकी नहीं खबर है ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है घरों की दीवारों पे लटकती है कुछ रंगीन तस्वीरें और हर कोना गुलदानों से सजा रखा है महकता है घर आँगन बाज़ारी इत्र फुलेलों से मगर रिश्तों में कहीं भी कोई खुशबु नहीं है ये बेमायने से रिश्ते, बेसबब और बेअसर है ये कौन सा शहर है न रास्ता न

" चाँद सितारे और मैं "

" चाँद सितारे और मैं "   कल रात चाँद सितारों से बैठ कर बातें करता रहा  बड़े अदब से उनका नाम पूछा अपने बारे में बताया  चाँद खामोश था मगर तारे जवाब देते थे टिमटिमा कर  चाँद की रौशनी में डूबे वो सारे सितारे मुझे सुन रहे थे  और मेरी आँखों  में उनका अक्स दिखाई दे रहा था  थोड़ी देर बाद मुझे एक सितारा चलता हुआ नज़र आया  मैंने पूछा वो कहाँ जा रहा है तो हसकर कहने लगे  ,"क्या मंजिल की तलाश सिर्फ तुझे रहती है ".  वो भी मंजिल की धुन में अपनी राहों पे भटक रहा है  जाने कब उसका सफर ख़त्म होगा या होगा भी के नहीं  रोज़ तो ये आसमान चुपके से अपना दामन फैला देता है .  बड़ी निराशा थी उस सितारे की आवाज़ में  और उस सितारे की चाल में, जैसे वो अपना अंजाम जानते हों  इतने में एक सितारा धरती पे टूट के गिरा और  कहीं बिखर गया मैंने फिर से सवाल किया उस टूटे सितारे के बारे में  इस बार उसकी आवाज में सोज़ था एक दर्द था  और बोले," जब किसी को मंजिल नहीं मिलती  तो वो टूट जाया करते है बिखर जाया करते है"  बड़े खुशकिस्मत हो तुम धरती पे रहते हो  तुम लोगो क

" चलो सफर करते है "

         " चलो सफर करते है "  इस ज़िंदगी के रेले में हर कोई मुसाफिर हर किसी के कंधे बोझिल, माथे पे शिकन और चल रहा है पथरीली आँखों को लिए पैर के पंजे एक दूसरे से बिखर गए हैं।  मगर परवाह किसे है ज़रा दम लेने की ठहर कर ज़रा मुडके देखने की।  माथे पर पसीना मगर सीना तना है आँखों में झुंझलाहट मगर राह पर बना है  कोई आवाज़ अब, कानों तक नहीं पहुँचती  अब कोई आहट दिल को दस्तक नहीं देती। हाँ कुछ सुनाई देती है तो एक धुन, एक सनक, कि मंजिल पे पहुंचना है. चेहरों को आँखों से देखो तो रूहानियत है  और दिल से देखो तो लब है पड़ेंगें। हम आधुनिक लिबास पहने ज़िंदगी से बेलिबास है ये चकाचक रौशनी क्या सच में ख़ास है एक पतंगे की तरह इस रौशनी में गुमराह है ये जानते हुए भी..  कि ज़्यादा रौशनी आँखे बंद कर देती है दिमाग मंद कर देती है फिर भी दिल, दिमाग से परे उस रौशनी में लिपटना चाहता है और फिर क्या, इस सफ़र में तमाम उम्र बस चलते रहो यां जलते रहो, मंजिल मिले न मिले बस चलते रहो थक कर बैठोगे तो लोग हसेंगें ....  कोई हमराह, हमदर्द नहीं है इस सफर में बस चल कर, उड़ कर, दौड़ कर या उड़कर आगे निकलना

" अपनी किताबें हटा कर देख "

" अपनी किताबें हटा कर देख "  इस रात के घेरे में रंग है कितने तितलियों के परों पे रंग है जितने हर कोना महका सा ठहरा सा कहीं एक ही ज़ज़्बात को लिए दूर तक बिखरा कहीं पत्तों पे ठहरी ये ओंस की बूंदे चुपके से ठहरी पलकों को मूंदे और हवा के झोंके से काँपता सा दिल जुगनुओं की  रौशनी होती झिलमिल फ़िज़ाओं में बिखरी खुशबू रजनीगंधा की  चंचल सी चांदनी अलबेले चंदा की और ताल मिलाते झींगुरों की आवाज़े  पत्तों की सरसराहट और पंछियों की परवाज़े कितना सुकून है रात की आवारगी में कहीं गहरे राज़ छिपा रखे है जैसे किसी ने यहीँ उस कुटिया की मुंडेर पे रौशनी की तरंगे ख़ुशी से जशन मनाते रौशनी में कीट पतंगे दिन की थकन से परे दिल गुनगुनाता है रात में इन्ही लहरों, हवाओं और झींगुरों के साथ में आँखों पे लगे मोटे चश्मे साफ़ देख नहीं पाते जिन्हें  फिर ये बंद सी पलके कैसे देख लेती है उन्हें हम उलझे रहते है किताबों की उलझनों में कभी यां दौड़ रहे है दुनिया के पीछे पीछे कहीं पर मिलता नहीं सुकून मंजिल पे भी कहीं  इस चार दिन की चांदनी को भूलें अब नहीं है छिपी ये रौशनी कहाँ? रात दिन के पर्दों को गिरा क

"अच्छा लगता है "

"अच्छा लगता है "  बहुत अच्छा लगता है जब कोई मज़दूर अपनी मज़दूरी को हाथ में लेकर अपने माथे को सुकून से पौंछता है और दिल में सबर सबूरी ढूँढ लेता है फिर जब मुस्कुरा कर घर चल देता है वो मुस्कराहट देख कर मुझे, अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है  अपने अरमानो को दिल में छुपा कर अपनी उम्र को आस की भट्टी में जला कर जब वो अपने बच्चे को पढ़ने भेजते है उनकी आस को जब बच्चा परवाज़ देता है तो ख़ुशी से छलकी माँ-बाप की आँखों को देख मुझे, अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है  पिता  की ऊँगली थाम जब बच्चा मेले जाता है खुशियों से भरे हर कोने को आँखों समाता है फिर, किसी खिलौने को देख चुपके से ठहर जाता है फिर, पिता को चुप देख कर " अच्छा नहीं है खिलौना" कहता है तो सचमे,अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है  क़र्ज़ से भीगी पगड़ी को पहन कोई चिलचिलाती धूप में उम्मीद लिए हल चलाता है शाम को खेत किनारे बैठ कहीं खो जाता है और कांपते पैरों से घर जाते जाते जाने कैसे चेहरे पे ख़ुशी ले आता है, वो झूठी ख़ुशी देखकर अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है  सरहद पर चट्टान सा खड़ा जब वो कड़कती धूप

" तेरी ओर "

  " तेरी ओर "  फिज़ाओ में खेलती तेरी खिलखिलाती सी हसी और कलियों सा महकता ये मखमली सा बदन पैरों से खेलते तेरी पायल के घुंघरू और कलाइयों पे खनकते ये कांच के कंगन बेलों की तरह लिपटा ये तेरा आँचल और शोर मचाता हुआ तेरे दिल का स्पंदन एक नशे के समंदर को बांधता ये काजल और चन्द्र हास् सा तेरे कानो का कुण्डल नागमणि सी चमकती तेरे माथे की बिंदिया बालों में सिमटा कोई बादलों का जमघट हिरणी सी चाल बल खाती सी कमर हसे तो लगे नदी से झरने का हो संगम रात दिन सी लगे तेरी झुकती उठती सी पलकें और सुराही दार तराशी सी गर्दन आँखें खोलूं तो सामने तू है आँखें बंद करूँ तो सामने तू है इन बहारों में इन नज़ारों में और इन लहरों में बस तू ही तू है हर घडी दिल में सुनता हूँ एक शोर मैं चल रहा हूँ....   बस.. तेरी ओर..तेरी  ओर.... तेरी ओर . आरज़ू-ए-अर्जुन  

" आखरी पल है "

" आखरी पल है "   आखरी पल है आँखों में कुछ तस्वीरें आ रही है वक़्त की दास्ताँ और प्यार की तकरीरें सुना रही है मेरे बचपन की यादें वो हसना वो खिलना  वो कंचों की मस्ती वो पतंगों का लड़ना बारिश के पानी में गिरना संभलना सर्दी के मौसम में सिहरना ठिठुरना क्यों भूली सी बातें मुझे याद आ रही है  मुझे याद है वो किताबों के दिन वो आपस की मस्ती बेहिसाबों के दिन वो यारों की खातिर फिर लड़ना झगड़ना किसी की आँखों में दिल का फिसलना वो दिलकश सी यादें दिल को धड़का रही है  था पहला कदम और कॉलेज की बेपर्वाहीयां वो जज़बे जूनून मोहब्बत की अंगड़ाइयाँ उस खिड़की के शीशे से चुपके से तकना दिल पे तेरा मेरा नाम वो बैंचों पे लिखना वो इशक में डूबी बातें क्यों तड़पा रही है मंजिल के लिए फिर राहों को चुनना उम्मीदों से जुड़े सपनो को बुनना कई ठोकरों के बाद फिर से संभलना बिखरी सी हिम्मत को समेट कर चलना वो जूनून से भरी निगाहें क्यों इतरा रही है वक़्त की चल में अपनों की बेरुखी हिम्मत थी संजोनी पर नज़रे थी झुकी फिर बारी बारी उन हाथो का बिछड़ना ज़िंदगी के वादों को पल भर में मुकरना क्यों ये बातें मेरी

ऐ आईने तेरा चेहरा अब अच्छा लगता है

बस गए होजबसेइन आँखों में तस्वीर बनके ऐ आईने तेरा चेहरा अब अच्छा लगता है वादे इरादे तो होंगे इस प्यार में भी मगर उसका हर वादा सब वादों से सच्चा लगता है आशिक़ों के किस्से तो हमने भी सुन रखे है मगर उनका प्यार तेरे प्यार से कच्चा लगता है तेरी मुस्कान ने घोली है फ़िज़ा में वो खुशबू कि आशिक़ बना इस शहर का हर बच्चा लगता है और तेरे गालों से खेलती इन लेटो की कसम प्यार में जीना- मरना अब अच्छा लगता है आरज़ू-ए-अर्जुन   

" ख्वाबों का भँवर "

" ख्वाबों का भँवर  "  इलाज़ता है दिल उन जख्मो को जो फ़ुरक़त के लम्हों में मिले थे कभी रात की चादर में हमने भी कई सितारे जड़े थे आज वो चमकता सा सितारा पूछता है क्यों ? अभी तक सोये नहीं ? पर क्या बताऊँ उस मासूम से दोस्त को अब ख़्वाब देखने से डरता है दिल फिर, मेरी उलझन से  निकल कर एक ख्वाब मुझसे कहता है हम दोनों ही अधूरे है एक दूजे के बिना चलो इस अंजुमन से दूर कहीं एक दूसरे को सँवारते है तुम मुझमे फिर से रंग भरना और मैं तेरी दुनिया खुशरंग बनाउंगी फ़क़त क्यों सोचता है उसकी बातों को ये दिल वो कहता है, "क्योकि ख्वाब देखने के लिए आँखों की जरूरत नहीं होती है " ख्वाब तो उनके भी पूरे होते है जिनकी आँखे नहीं होती तक़दीर तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते और मंजिल पे वो भी पहुँचते है जिनके पाँव नहीं होते। खैर!  मेरे उलझनों के भंवर में मेरे ख्वाब गोते लगाते रहे न मैं इस भॅवर से उभर सका न मेरे ख़्वाब इसमें डूब सके पर मुसलसल मेरे ख़्वाब आज भी मुझसे सवाल जवाब करते है एक चाहत फिर से होने लगी है अब फिर से ख्वाब देखना चाहता है दिल आरज़ू-ए-अर्जुन