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Showing posts from February, 2014

( आरज़ू की कलम से )

  ( आरज़ू की  कलम से ) बस एक रात की  बात है गुजर जाएगी ए दिल ज़रा थोडा ठहर फिर सहर आएगी आँखों से एक आंसू भी छलकने न देना तुझे रोता देख ये दुनिया मुस्कुराएगी होठो को सी लेना आह न निकले कहीं तेरा दर्द सुनके दुनिया तमाशा बनाएगी दिल की गुस्ताखियों को चल माफ़ भी करदे  इसके बाद तेरे आँखों की  बारी आएगी करना है तो अपने हालात से प्यार करले जाने कल ये कौन सा फलसफा सिखलायेगी है बेदर्द ज़माना या दुनियां का दस्तूर है एक हाथ से देकर दूसरे हाथ लेकर जाएगी है सिसकने से बेहतर चुपचाप दम तोड़ देना ये बेमुर्रवत् दुनिया अपने जशन मनाएगी                          ( आरज़ू )  

शायरी

AARZOO KI KALAM SE उनका तस्सुवर भी क्या करते जो रकीब के साथ थे, करूँ सजदा या नज़रों से गिरा दूँ बड़ी मुश्किल में ज़ज़बात थे, किया करीब एक तमाशायी को सितमगर और किया दूर, जो सदियों से पास थे।                           फूलों की चाहत है तो काँटों से भी दिल लगाना होगा मंजिल की चाहत है तो राहो को भी सजाना होगा , यह इश्क़ रूठने मनाऩे का खेल नहीं है आरज़ू , यहाँ  तो हद से भी गुजर जाना होगा ..........                 वो मोड़ गए है दिल कुछ सामान अभी बाकी है वो गुजरे ज़माने की पहचान अभी बाकी है तू मिटा दे चाहे अपने दिल की किताब से मुझे वो आखरी बेंच पे तेरा मेरा नाम अभी बाकी है वो गए ज़माने जब हारते थे इस दिल को , आज जीते है कई दिल और ज़हान अभी बाकी है …     तूं  महके खुशबुओं में नहा के सनम हमें तो खुश्बू खून पसीने से आये तू छलकाये शराब कातिल निगाह से हमें तो नशा मस्त मलंग होकर आये , तेरा रूप सुनहरी दोपहर जैसा हमे तो सिर्फ चांदनी राहत पहुंचाये तू बदलती रहती है ज़ायके ज़बान के हमे तो सिदक दो मिस्सी रोटी में आये, न लगा यारी इस फ़क़ीर गरीब से यह ऊंच नींच की दुनिया देख न सुखाये, है

आरज़ू की कलम से

पानी की तरह रंगहीन , गंधहीन था आरज़ू इस दुनियां ने रंग भरे और गन्दा कर दिया         ( आरज़ू )          मैं  ज़मीन की जड़ से जुड़ा हूँ      आकाश में उड़ना मुझे नहीं आता है    सर उठा कर चलना तो फितरत है मेरी वरना ! आकाश तो क्षितिज पे झुका नज़र आता है    (आरज़ू ) मैं हवा था इस गुलशन में महका सा कहीं, क्या खबर थी , सेहरा में जलना भी होगा और तूफनों में चलना भी होगा एक कशमकश सी रहती है अक्सर अपने वुज़ूद को लेकर, मेरी वज़ह से उसे बसना भी होगा और उजड़ना भी होगा           (आरज़ू ) इतना  सोच समझ के फैसले क्यों लेता है तूं , लोग फैसला लेके उसे साबित कर देते है आरज़ू               ( आरज़ू )   हाथ की लकीरों में क्या ढूंढ़ता था आरज़ू तकदीर तो मुट्ठी में बंद थी जब देखा उस तकदीर को सामने तो कम्बख्त मेरी साँसें ही चंद थी        (आरज़ू )