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Showing posts from November, 2012

" बेहोशी और ख़ामोशी "

बेहोशी और ख़ामोशी ज़िक्र आता है यूँ ही कभी-कभार चंद बातों में घूमते-फिरते चलते-फिरते चंद मुलाकातों में होती है चाँद-सितारों की दूर-दराजो की बातें ज़िक्र रंगीन हो यां संगीन हो कहते है मुस्कुराते बच्चो में शुमार है आजकी  आधुनिक तकनीकी   युवाओं में खुमार है पश्चिमी फ़ैशन कला -कृति संजीदा लोगों ने ले रखा है प्रशासनिक पदभार देश के ठेकेदार कर रहे है देश का बंटा-धार पर! ज़िक्र करें जब नारी शोषण, और उनके चोटों पे बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे    होकर शिक्षित हम कितने बड़े विद्वान बने कितनी योनियाँ जी कर तब एक इंसान बने कर दिया तार-2 और हर फ़र्ज़ को शर्मसार छोड़ दी इंसानियत, क्या सच में इंसान  बने जला दिया ममता को नारी की हर क्षमता को आँखे खुलने से पहले ही  आँखें बंद कर डाली विकसित होने से पहले ही तोड़ दी वो डाली दोष यह है,कि वो आज़ाद भारत में पल रही नारी है इस पुरुष प्रधान देश के कंधों पे वो कितनी भारी है   रीड़ की हड्डी इतनी कमजोर है के भार उठा नहीं सकते हो गए है वो अमानुष और उसे मानुष बना नहीं सकते दिखतें है आज साफ़, कई दाग, हमें उन सफ़ेद कोटों पे बस एक ख़ामोशी सी

" एक धुंदली सी आशा "

" एक धुंदली सी आशा " फ़र्ज़ और रिश्तों के बीच एक नाज़ुक डोर है एक सिरा इस तरफ तो दूसरा उस ओर है फासले बढ़े तो डोर चट्केगी घटे तो उलझेगी सोचो जरा किस तरह यह पहेली सुलझेगी कोई अहम् का शिकार कोई वहम का शिकार अपने अपने हक़ के लिए करते है मारो-मार कहीं पार्दर्शिता नहीं कई परदे दर्मयाँ आ जाते है पर्दा उठते ही लोगों के किरदार बदल जाते है पर है सुकून एकाकी प्यार में भी, तू फ़र्ज़ निभा के देख यह उलझन सुलझ सकती है, आँखों से परदे हटा के देख करीब से देखोगे तो हर तस्वीर धुंधली हो जाती है दूर से देखोगे तो तस्वीर धुंध में कहीं खो जाती है प्यार को बांधो या रिश्तों को वो दम तोड़ ही देगा राही हो यां हमराही, एक मोड़ पे लाके छोड़ ही देगा तुम अकेले ही थे यहाँ अकेले ही चलना पड़ता है कोई नहीं कूदता आग में, अकेले ही जलना पड़ता है कर ले तरो-ताज़ा अपने दिल-दिमाग को इसी धुंध में जला के खुद को कुंदन बन जा इसी अग्निकुंड में महक उठेंगी तेरी राहें ज़रा इन काँटों को हटा कर तो  देख दिखेगी मंजिल करीब हो यां दूर आँखों से धुंध हटा के देख यह जिंदगी एक संघर्ष है और अभी ज़िंदा हो तुम मात देखी होगी कई 

" क्या वादा निभाया हमने "

" क्या वादा निभाया हमने " हम करते रहे वायदे तमाम उम्र; क्या वादा निभाया हमने बचपन में सिखाई गई थी कुछ बातें नई आदतें लोगों ने बताये कुछ जीने के गुर और नए रास्ते हमने कहा हम यह बनेगे, हमने कहा हम वो बनेंगे पर भुला दिया सब कुछ, क्या कुछ भी अपनाया हमने युवा हुए एक उमंग थी एक जोश था हममें चुन सकते थे वो राहें पर कहाँ होश था हममे किसी ने कहा यह ठीक है तो यह कर दिया किसी ने कहा वो ठीक है तो वो कर दिया बस यूँ हीं गवां दिया वो कीमती समय हमने कर सकते थे रौशन राहें, क्या कोई दीप जलाया हमने  सुनते  आये कुछ किस्से-कहानियां बचपन से क्या समझ आई थी उन बातों की लड़कपन से समय समय पर बदल जाती थी हमारी पसंद पर हमने देखा किसी का रूप  किसी का रंग  देखा हमने रुतबा शोहरत और किसी का ढंग परिभाषा तो बदल दी, पर क्या प्यार, वफ़ा से निभाया हमने धर्म के नाम पर हमने खुद को बाँट डाला मानव होते हुए भी मानवता को काट  डाला प्यासे रह कर माँ बाप ने हमारी प्यास बुझाई वक़्त आया हमारा तो हमने फ़र्ज़ से आँख चुराई दिया भगवान् और माँ-बाप को  स्थान एक कोने में जिन्हें उम्र लगी थी हमारे सपने स

" मैं अक्सर देख के हँसता हूँ "

मैं अक्सर देख के हँसता हूँ  बच्चा झूठ बोल कर पैसे मांगे तो वो गन्दा है बड़े अपने कारोबार में झूठ बोले तो वो धंधा है लड़की चुपके से किसी से बात करे तो उसपे शक है पत्नी चुपके से जेब से पैसे निकाले तो उसका हक़ है सदा सच बोलो, दूसरों के काम आओ ऐसा स्कूल में सिखाया जाता है गरीब के पास फीस कम है उसकी कमीज़ के बटन विषम है तो उसे स्कूल से निकाला जाता है कोई मजबूर अपनी मजबूरी रोये तो उसे फटकार के कहते है चल-चल हमारे पास पैसे नहीं होटल में वेटर को सौ रुपये देकर सबको दिखाते है हम ऐसे वैसे नहीं इतने में छोटा बेटा बोला, पापा! सैम बड़े स्कूल में पढ़ता है मैं भी वहीँ पढ़ने जाऊंगा बेटा, उसके पिता मिल मालिक, मैं मजदूर इतने पैसे भला मैं  कहाँ से लाऊंगा इतने में बड़ा बेटा बोला, पापा! मुझे दस रुपये नहीं सौ रुपये दो अब मैं कॉलेज पढ़ने जाता हूँ सभी पिज़्ज़ा- बर्गर खाते है और मैं वहां समोसे खाता हूँ पापा भड़के और बोले! तुम पढ़ते  हो यां जशन मानते हो ऐसे तो तुम कुछ न बन पाओगे शास्त्री, कलाम जैसे बनो वरना! तुम तो हमें मरवाओगे अब बेटी की बारी थी, बोली, पापा! कैसे करूँ दुनियां मुट्ठी मे

( बेखबर मुसाफिर )

              ( बेखबर मुसाफिर ) मंजिल की धुन में ऐ बेखबर राही तू नाप रहा है कुछ राहें अनचाही जब चला था सफ़र पे तो कितना शोरगुल था क्या सुन सकता है वो आवाज़े मनचाही अपने क़दमों की आवाज़ साफ सुन रहा है और मन में कुछ ताने-बाने बुन रहा है यूँ मुँह फेर के चल रहा है मदहोशी में कितने सवाल उठ खड़े हुए तेरी ख़ामोशी में चलते रहना जिंदगी है पर थोडा ठहर तो कहीं बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं  तू अकेला होता तो यह  कुछ और बात थी तुझ संग बंधे थे कुछ धागे और डोर तेरे हाथ थी मंजिल की चाह में उन धागों को चटकाया होगा उन कोमल फूल-कलियों को तुमने मुर्झाया होगा वो टूटे बिखरे पड़े रहें होंगे उन्ही राहों पर, और छोड़ आया होगा कितने अश्क उन निगाहों पर ऐसे में मंजिल पा भी ली तो क्या करेगा तू खुद ही हसेगा, और खुद ही रोया करेगा तू इसलिए रुक कर देख कोई हमराही रूठा तो नहीं बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं यह दुनिया ज़ज्बाती है ज़ज्बात बसते है इधर इनको पैरों तले रौंद कर तूं जायेगा किधर  देख उन तरसती निगाहों के क्या अरमान है तुम्हें करना होगा इन अश्कों का सम्मान है तुम्हे ब