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Showing posts from March, 2015

" पहचान "

" पहचान " मैं कभी तेरे होटों की मुस्कान हूँ तो कभी तेरी साँसों की पहचान हूँ तेरे दिल में गूँजती घंटियों का शोर तो कभी शाम को मस्जिद की आज़ान हूँ मेरी खुशबू है तेरे हर अलफ़ाज़ में मैं कभी गीता, बाइबल तो कभी कुरान हूँ तू चाहता है जिस पिण्ड को पवित्र करने को मैं वही कुम्भ और अमृत सरोवर का स्नान हूँ मैं  खेलता हूँ इन बाग़ बगीचो और जंगलों में मैं ही तेरे सुनहरे खेत और खलियान हूँ तू सराबोर है जिस आधुनिकता की रौशनी में मैं वही परम्परा और आधुनिक जहान हूँ मैं कभी तेरी धड़कनो का मधम शोर तो कभी होंसलों का बुलंद  तूफ़ान हूँ कर कोशिश जितनी भी मुझे भूलने की मैं कल भी तुझमे शामिल था , मैं आज भी तुझमें विद्धमान हूँ कभी लहराता हूँ तेरे सर पे शान से तो कभी गढ़ा हुआ जीत का निशान हूँ रख हाथ दिल पे और सर उठा के देख मुझे मैं वही तिरंगा और वही  हिन्दोस्तान हूँ मैं तेरी आन हूँ, बान हूँ,  मैं तेरी शान हूँ ए बंदे मैं ही तेरा भारत हिन्दोस्तान हूँ ( आरज़ू )

" मंजिल की ओर "

" मंजिल की ओर " हर लम्हा मैं  छूट रहा हूँ दिल ही दिल कुछ टूट रहा हूँ मैं मंजिल की धुन में साथी तेरी राहों से रूठ रहा हूँ ये वक़्त जो गुजरा पूछ रहा है रह रह कर कुछ सोच रहा है हम  कैसे फिर रह पाएँगे मुड़ मुड़ पीछे देख रहा है अब वक़्त नहीं है इन बातों का क्या मतलब है अब इन रातों का भूल जाना अब दिन और रातें एक महल बनाना है ख्वाबों का न होगा रेशमी साया वहां पर न होगी मखमली काया वहां पर होंगे कांटे और पत्थर कुछ है मुझको अब जाना जहाँ पर मत देना पीछे से आवाज तुम मत करना आंसू की बरसात तुम मैं मंजिल की ओर जा रहा हूँ समझना आखरी मुलाकात तुम एक वादा मैंने तुमसे किया है एक वादा तुमने मुझसे किया है पाकर मंजिल मैं लौट आऊंगा इस ख्वाब के संग जो तुमने दिया है मत डरना मेरी हार को लेकर मैं आऊंगा अपनी जीत को लेकर तब देखूंगा मैं ये आंसू तेरे कैसे होते हैं ख़ुशी को लेकर। .                      ( आरज़ू )

हमनशीं मंजिल "

हमनशीं मंजिल " अभी रहने दो इन बाहों में मुझे हमनशीं बहुत थक गया हूँ मैं सपनो के सफर से नहीं सुकून है वहाँ ऐसी जुल्फों की छाँव सा मैं आजतक इतनी गहरी नींद में सोया नहीं हूँ मेरे हज़ारो सपनो से कहीं अच्छी है ये तेरी आँखे इन्हे देखकर कुछ और देखने को जी नहीं करता यह ठंडी हवा यूँ महसूस नहीं होती है मुझे जैसे तुम्हारी ये सांसे मैं महसूस करता हूँ तुम उँगलियों से बालों को जब सहलाती हो लगता है खुदा ने मेरी कोई दुआ क़ुबूल की हो तेरी ये धड़कने जब मेरे सुर में सुर मिलाती है तो लगता है फ़िज़ा में मौसिकी का दौर लौट आया हो और कभी देखता हूँ तुझे मुस्कुराता हुआ हमनशीं तो दिल ख़ुशी से मुस्कुराता हुआ जशन मनाता है तेरे आँचल से बंधे है मेरी खुशिओं के कारवां बहुत अच्छा लगता है इन्हे हवा में लहराता देख तेरी ऊँगली में पड़े इस अंगूठी की कसम हमनशीं मेरी ज़िंदगी जैसे कैद हो गयी है इसमें कहीं ये सूरज चाँद भरता होगा रौशनी इन चूड़ियों में यू हीं नहीं चमकती रहती है ये दिन- रात और एक आवाज़ जो मैं सुनता हूँ सोते जागते कभी ये सावन की बूंदे नहीं तेरी पायल की आवाज़ है अब तुम ही बता ए हमनशीं