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Showing posts from February, 2017

ज़िंदगी मिल गई... ग़ज़ल

आदाब तुम मिले क्या हमें ,  ज़िंदगी मिल गई हमने चाही थी जो वो खुशी मिल गई हम  भटकते   रहे    तीरगी   में  सदा तेरी  आमद   हुई   रौशनी   मिल  गई तन्हा तन्हा सी थी राह-ए-उल्फत मेरी साथ तुम क्या  चले रहबरी  मिल गई तेरे आने  से  ही  लब  पे  जुंबिश  हुई इन  लबों  को  दुबारा  हसी  मिल गई सिर  झुकाया नहीं था किसी के लिए मैं  था  काफ़िर मगर  बंदगी मिल गई 'आरज़ू ' की ग़ज़ल तब  मुकम्मल  हुई अंजुमन  में  तेरी जब  नमी  मिल गई आरज़ू -ए-अर्जुन

हो गया है प्यार क्या.. ग़ज़ल

आदाब  2122..2122..2122..212 हर घड़ी तन्हा सा रहना, दिल में  है  सरकार क्या  ज़ुल्फ बरहम, आंख भी नम, हो गया है प्यार क्या  लब  तेरे  खामोश  हैं अब,  नब्ज़  भी  जैसे रूकी उखड़े उखड़े लग रहे हो खुद से ही तुम यार क्या  ग़ुरबतों   की  आंधियों   में   ख़ाब  मेरे  सब  उड़े देखना  है  अब  उड़ाती  ये   हवा  इस  बार  क्या  अब यहाँ हर  घर की हालत,  सुर्खियों सी बन गई  मुफ़लिसों की बस्तियों में, करते हो अख़बार क्या  दाग़   दामन   भी   करेंगे,   घर  तुम्हारे   बैठ  कर दोस्तों   की  दोस्ती   पे  करते   हो  ऐतबार  क्या  हाथ   तेरे   हैं   सलामत,   पैर   भी   मज़बूत   हैं  तोड़  दो   इन  पर्बतों   को  बैठे  हो  बेकार  क्या  चाहते  हो  चैन   से  जीना   यहाँ  पर  तुम  अगर  जोकरों  का  सीख  लो,  होता   है  किरदार  क्या  बांध कर  सिर पे कफ़न अब चल पड़ा है आरज़ू  राह में जो भी मिले अब फूल क्या और ख़ार क्या  आरज़ू -ए-अर्जुन

दिखा ज़लज़ले या तू बरपा कहर दे..

आदाब 122*4 मुहब्बत  में  रोयें  न  आंखें  यह वर दे ऐ मौला तू फौलाद  का दिल जिगर दे नहीं  दिल  में  कोई   किसे   ढूँढता  है समझदार  बन  जा  दरारों  को  भर दे मुझे  चैन  से   नींद   आती   रहे  बस रहूँ   आसमां  के  तले  यां   तू  घर  दे अगर  पर  को फैलाऊं अंबर से ऊंचा तो  मेरे  परों  को  तू  फ़िर से कतर दे निहत्था  चला  जा  रहा  हूँ सितमगर है  मौका  मेरे   दुश्मनों  को  ख़बर  दे निवाला  हलक   से   न   उतरेगा  तेरे सुबह  की  तू अख़बार पे जो नज़र दे वजीरों  को मीठा  खिलाते  हो पागल वो  हैं सांप  इनको तू  कड़वा ज़हर दे सदा चल सकूं सिर  उठा कर जहाँ में मुझे   ज़िंदगी   में   तू  ऐसी   बसर  दे मुहब्बत  के  मारे   हुए  'आरज़ू '  को दिखा  ज़लज़ले  तू यां  बरपा कहर दे आरज़ू -ए-अर्जुन

हल्का हल्का सुरूर देखा था

आदाब उनकी  आँखों  में  नूर देखा था हल्का  हल्का  सुरूर  देखा  था उस    नशीली   रात   में    मैने एक   हसीं  कोहेनूर  देखा  था भर  लूं  आगोश  में  उन्हें  ऐसा ख़ाब   मैने   ज़रूर   देखा  था पास  आते   गए  वो  मेरे   पर खुदको  तन्हा  सा दूर देखा था सच बताऊँ तो उनसे यूं मिलके खुद  में   मैने  गुरूर  देखा  था जब थे आगोश में वो तो दिलमें झूमता   सा   म्यूर   देखा   था कत्ल   करके   चले   गए  मेरा फिर भी  वो  बेकसूर  देखा था आरज़ू अब भी सोचता उसदिन उसने मुड़कर  ज़रूर  देखा था आरज़ू -ए-अर्जुन

आंखों में ऐसे खा़ब सजाया न कीजिए

आदाब 221.2121.1212.212 चाहत में  इस  तरह  से सताया  न कीजिए नाज़ुक  सा दिल  है यार दुखाया न कीजिए बातें  तमाम   होती  है  कहने   को  आपसे आंखों  को  दरम्यान  यूं  लाया  न  कीजिए आंचल उड़ा रहे  हो,  गिराते  हो बिजलियाँ दिल के जलों को  और  जलाया न कीजिए महफ़िल में  हैं  हबीब  तो  होंगे  रकीब भी सबके  करीब  आप  यूं  जाया  न  कीजिए जो सिर झुकाता आपकी खिदमद में हर घड़ी ऐसे  बशर  की  बात  में आया  न कीजिए ये नूर  चार दिन की  है अब  चांदनी सनम यूँ   हुस्न  का  गुरूर  दिखाया  न  कीजिए भगवान  ढूँढते  हो तो  दिल में  ही  ढूँढ लो यूँ हर जगह पे सिर को झुकाया न  कीजिए तेज़ाब  सी   जले  तो,  उसे  छोड़  'आरज़ू ' आंखों  में  ऐसे  खा़ब  सजाया  न  कीजिए आरज़ू -ए-अर्जुन

अगर ठोकरों का मैं मारा न होता.. ग़ज़ल

आदाब अगर  ठोकरों  का  मैं  मारा  न  होता चमकता  हुआ  सा  सितारा  न  होता न पहचानते  तुम  मुझे  इस  जहां  में अगर  खुद को  मैने  निखारा न होता बुरे  वक्त से सीख  मिलती  न मुझको तो  राहों  को  अपनी  संवारा न होता बनाता न  खुद  को  जो  चट्टान जैसा रकीबों  में   मेरा   गुज़ारा   न   होता कहाँ  जीत  पाता  तुम्हीं को  तुम्हीं से मैं इस दिलको तुमपे जो हारा न होता ग़मों  से अगर  दिल  लगाता तो यारो मैं  दुनियां  में   यूं  बेसहारा  न  होता चले जाते दुनिया  तेरी  छोड़  कर हम अगर  दिल से  तुमने  पुकारा न होता हां   तूफान   में  'आरज़ू'  डूब   जाता अगर   हौसले   ने   उबारा   न   होता आरज़ू -ए-अर्जुन

हर खुशी है दर्द में लिपटी हुई...

आदाब शाम ढ़ल जाती  है यूं सुलगी हुई ज़िंदगी  है  प्यार  में  उल्झी  हुई मयकदा  रोने  सा  लगता है मेरा जब दिखे आंखें तेरी छलकी हुई सांस बाकी है अभी कुछ सीने में जान  उसमें  है  मेरी  अटकी हुई कल खिली गुलशन में महकी सी कली दिख रही है आज  वो चटकी हुई हर कोई  मायूस  चलता फिर रहा ज़िंदगी  सबकी  लगे  भटकी हुई किसके दिल में है खुदा ये तो बता हाथ  में  माला है बस पकड़ी हुई घर के  रिश्ते  जाल जैसे बन गए आदमी  की  ज़िन्दगी मकड़ी हुई आरज़ू  तू  किस  लिए रोता यहाँ हर  खुशी  है  दर्द में  लिपटी हुई आरज़ू -ए-अर्जुन