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Showing posts from January, 2017

एक तू ही नहीं अकेला यहाँ..

आदाब आप  जबसे   गैरों   के  सहारे  हुए लौट आते  हैं  महफ़िल  से हारे हुए आदतन  देखते  हैं  तुम्हें  आज भी उम्र  गुज़री   है  तुमको  निहारे हुए ज़िंदगी  खूबसूरत  सी  लगने  लगी बाद  मुद्दत के  जब तुम  हमारे  हुए जान कहकर बुलाया था तुमने कभी आज  अरसा  हुआ  वो  पुकारे हुए कर  रहें  हैं  सफ़र  हौसले  से यहाँ इस  समंदर  में   कश्ती  उतारे  हुए ज़िंदगी  क्या से क्या बन गई दोस्तो मुश्किलों   से   हमारे   गुज़ारे   हुए ढूँढती  फिर रही  ये  नज़र  चार  सू दूर आंखों  से  क्यों  ख़ाब  सारे हुए एक   तू  ही  अकेला  नही  'आरज़ू ' इस  जहां  में  सभी ग़म के मारे हुए आरज़ू -ए-अर्जुन

नमकीन सा पानी..

      नमकीन सा पानी .. मिट्टी में तालाश रहे हो मुझे.. अब तो निशां भी नहीं होंगे वहाँ. कई हिस्सों में बंट गई थी मैं, गिरते ही बिख़र गई थी मैं.. महज़ एक सेकंड का वक्त लगा, और मीलों की दूरी तय कर ली.. तेरे हर ग़म की राजदा थी मैं तेरी हर धड़कन,हर आहट,हर दस्तक को पहचानती थी मैं.. मैने सुनी थी उनकी सदाएं, और वो चुभन भी... जो खा़मोशी से गूंजती थी तेरे, दिल की वादियों में.. तड़प बनकर.. बहुत कोशिश की थी तुमने.. बहुत कोशिश की थी मैने.. न तुम ख़ुद को रोक सके, न मैं ही वहाँ ठहर पाई... कल आखिरी बार रूकी थी.. तेरी आँखों की दहलीज़ पर. आख़िरकार गिरा दिया न तुमने मुझे अपनी आंखों से..... महज़ पानी ही तो थी मैं.. महज़ एक नमकीन सा कतरा.. एक सवाल पूछूँ जवाब दोगे ? क्या वो ग़म धुल गया...... आरज़ू-ए-अर्जुन

मैं ऐसे याद आना चाहता हूँ

आदाब 1222.1222.122 सभी के काम आना चाहता हूँ गले सबको  लगाना चाहता हूँ छलकती आंख हर ग़म से जुदा हो सभी  को यूं  हसाना चाहता हूँ कितीबें ही किताबें हों ज़मीं पे फसल ऐसी उगाना  चाहता हूँ खिज़ा को भी मुअत्तर यार करदे कली ऐसी खिलाना चाहता हूँ वफ़ा की धूप लाये जो शहर में मैं वो सूरज  उगाना  चाहता हूँ जहाँ पे  मौत होती भुखमरी से वहाँ  चूल्हे  जलाना  चाहता हूँ तसव्वुर जब मेरा हो खिल उठें दिल मैं  ऐसे  याद  आना  चाहता हूँ सुकूँ  गीतों  में  मेरे 'आरज़ू ' हो ग़ज़ल में  मुस्कुराना  चाहता हूँ आरज़ू -ए-अर्जुन 

ज़िंदगी के भार को ढ़ोता हुआ.. ग़ज़ल

आदाब 2122.2122.212 ज़िंदगी   के  भार  को   ढ़ोता  हुआ चल   रहा   है  आदमी   रोता  हुआ तैरते  हैं  आंख  में  कुछ  ख्वाब  यूं खेत   जैसे  आज   हो  जोता  हुआ रोज़   जाता    ढूँढने    को    ज़िंदगी लौट  आता   मौत   से   होता  हुआ रास्ते   आसान     ग़र    होते    यहाँ तो  खुशी  को जीता  यूं सोता हुआ इस जहां की  रौशनी  में खुद को ही देखता  है   भीड़   में   खोता   हुआ दिख  रहा  है  आज  वो  यूं हर जगा आंसुओं   से   हसरतें   धोता   हुआ हौसले   को   साथ   लेकर  'आरज़ू ' चल रहा  है  ख्वाब  भी  बोता  हुआ आरज़ू -ए-अर्जुन

किसी का दिल दुखाया जा रहा है.. ग़ज़ल

आदाब 1222 1222 122 किसी का दिल  दुखाया जा रहा है किली का  घर  बसाया  जा रहा है छुपा के आंसुओं  को  अंजुमन  में खुशी  से  मुस्कुराया  जा   रहा  है सजाना प्यार  से  तुम  आशियाना सबक उसको  पढ़ाया  जा  रहा है बड़ा मुश्किल  है यादों को भुलाना मगर फिर भी भुलाया  जा  रहा है बिठाया था हमें जिसजिस जगह पे वहीं से  अब  गिराया  जा  रहा  है बना  था   जो  मसीहा  दोस्ती  का उसे   सूली   चढाया  जा   रहा  है बना कर के  तमाशा मुफ़लिसी का ज़माने  को   हसाया   जा  रहा  है जिसे तुम 'आरज़ू ' कहते  मुहब्बत उसे   सौदा   बनाया  जा   रहा  है आरज़ू -ए-अर्जुन

हमेशा... तुम्हारा ! हमारा .कहाँ है ?

आदाब 122*4 हमेशा...  तुम्हारा !  हमारा .कहाँ  है ? बताओ  न  रिश्ता वो  प्यारा कहाँ है है आंसू  ही  आंसू  मुहब्बत में  यारो मगर इस के बिन भी गुज़ारा कहाँ है चले  आते चौखट पे तेरी  सितमगर मगर  दिल  से तुमने पुकारा कहाँ है ज़माने की हर शय को देखा है हमने तेरे  हुस्न  सा  पर  नज़ारा  कहाँ  है हकीकत  में  मझधार  ही  ज़िंदगी है सफ़ीने को मिलता  किनारा  कहाँ है जो  माझी  डुबोने  लगे  नाव  को तो बता   डूबते   को   सहारा  कहाँ   है लगाते  हैं  जो  दिल यहाँ  तीरगी  से उसे   रौशनी   का   इशारा  कहाँ   है मैं  हूँ  आरज़ू अब ज़माने की खातिर वो  नादान  अर्जुन  तुम्हारा  कहाँ  है आरज़ू -ए-अर्जुन

ज़िंदगी को यूं ज़हर मानते क्यों यार यहाँ . ग़ज़ल

आदाब 2122 1122 1122 22/112 प्यार दिल से वो जतायें तो कोई बात बने बात दिल की न छुपायें तो कोई बात बने मैकशी यार  कभी  आई  नहीं  रास  मुझे वो  निगाहों से  पिलायें तो कोई बात बने ज़िंदगी को यूं ज़हर मानते क्यों यार यहाँ विष को होटों से लगायें तो कोई बात बने मौजूदा हालत पे  रोते  हैं  कितना ही हम देश मिलके जो चलायें  तो कोई बात बने बस अमीरों की निभाते हैं  यहां यारी हम मुफलिसों की भी निभायें तो कोई बात बने राहबर आज बने फिरते हैं कितने ही यहाँ ज़िंदगी जीना सिखायें  तो कोई  बात बने तीरगी  फैल  रही   है  यूं   दिलों  में  यारो रौशनी ईल्म की लायें  तो  कोई  बात बने 'आरज़ू 'चाहता है भूख से कोई ना बिलखे हम  कदम मिल के बढ़ायें तो कोई बात बने आरज़ू -ए-अर्जुन

हर आदमी के दिल में उजाला दिखाई दे.. ग़ज़ल

आदाब हर आदमी  के  दिल में  उजाला  दिखाई दे रौशन  रहे  सदा  न  वो  काला  दिखाई  दे है  ज़िन्दगी  सराब  सी सहरा  में  जल रही तरसी  हुई  निगाह  को  प्याला  दिखाई  दे औरत  की आबरु की  हिफाज़त अगर करे तो  हर  बशर  यहाँ पे  निराला  दिखाई  दे इंसानियत  की बात को  समझें अगर सभी मस्जिद  मिले दिलों  में, शिवाला दिखाई दे जो  मारते  हैं कोख में  लड़की को भी यहां वो  औरतें  शैतान   की  ख़ाला  दिखाई  दे हसते  हैं  जो छिपा के  निगाहों में आब को उनके  दिलों  में  फूटता  छाला  दिखाई  दे ग़र  देश   के   वज़ीर   वफ़ादार  बन  सकें मुफ़लिस के हाथ में भी निवाला  दिखाई दे अख़बार  की नज़र  को  यहाँ  देख 'आरज़ू ' दुनिया की हर तड़प भी  मसाला दिखाई दे आरज़ू -ए-अर्जुन

पहचान भी अलग है यूं सारे जहान में.. ग़ज़ल

आदाब 221.2121.1221.212 पहचान क्यों अलग सी है सारे जहान में सब सोचते  ऐसा है  क्या  हिन्दोस्तान में है  सभ्यता  की  मूल, ये  हिन्दोस्तां  मेरा सबको मिठास मिलती  हमारी ज़ुबान में कल चांद को छुआ था यूं मंगल पे भी गए हैं  बुलंदियाँ  बड़ी  ही,  हमारी उड़ान  में हर  रूप में  हैं पूजते नारी को  हम  यहाँ तुमको  खुदा   मिलेंगे  हमारे   ईमान  में खुशबू  उड़े  हवा में सुबह-शाम पाक सी गीता  सुनाई   देती  यहाँ   पर  कुरान  में यूँ लांघना कठिन है फसीलों को भी यहाँ फौलाद भर दिया  है यहाँ  हर  जवान में है   केसरी,   सफेद,   हरे   रंग   से   बना ऊँचा   रहे   तिरंगा   सदा   आसमान  में बस  खुशनसीब लिपटें तिरंगे में  'आरज़ू ' कर  जाते नाम भी अमर दोनों  जहान में आरज़ू -ए-अर्जुन

मैं तेरी ज़िंदगी हूँ. गीत..

"मैं तेरी ज़िंदगी हूँ " मैं तेरी आंखों का पानी हूँ मैं तेरे  ख़ाब की रवानी हूँ मैं तेरे होटों की खिलती हसी मैं तेरी खिलती जवानी हूँ राज़ हूँ चुभता हुआ कोई मैं मैं तेरी  चलती कहानी हूँ मैं  तेरी  ज़िंदगी  हूँ,  ज़िंदगी  हूँ,  ज़िदगानी हूँ ... मायूसी   हूँ   कभी   मैं,  हौसला  भी  हूँ  तेरा लहरों सी चलती हूँ मैं, हूँ खुशी की एक सबा, ढ़ल रही हूँ आफ़ताब सी, चांद भी हूँ  मैं तेरा हूँ अंधेरी  रात भी मैं,  खुशनुमा सी हूँ  सुबह, मैं तेरे वक्त की निशानी हूँ, मैं तेरी  चलती कहानी हूँ, मैं  तेरी  ज़िंदगी  हूँ,  ज़िंदगी  हूँ,  ज़िदगानी हूँ.... सहरा  की  धूप  हूँ  मैं, पीपल  की  छाँव  भी हूँ  सराब रेत  सी  मैं,  शबनमी  सा  जाम भी, मैं खि़जा की आहट भी हूँ, मैं फ़िज़ा की आह भी थक रही हूँ दिन के जैसी, हूँ सुकूँ की शाम भी, मैं तेरे माथे का पानी हूँ,  मैं तेरी चलती कहानी हूँ मैं  तेरी  ज़िंदगी  हूँ, ज़िंदगी  हूँ,  ज़िदगानी  हूँ.... आरज़ू -ए-अर्जुन

Logon ke dil me paak Muhabbat nahi rahi.

आदाब लोगों के दिल में पाक मुहब्बत नहीं  रही आलूदगी  है  आज  वो  ग़ैरत  नहीं  रही करते हैं  वार पीठ पे, उल्फत में भी यहाँ अब दुश्मनी में साफ़, अदावत नहीं  रही आंखों की मयकशी थी,अदाओं में था नशा अब  हुस्न की  अदा में  शरारत नहीं रही दामन बचा बचा के निकलती हैं खौफ़ में औरत की अब गली में हिफाज़त नहीं रही महकी सी थी ख़िजा़ भी मेरे देश की कभी ज़हरीली अब सबा है वो राहत नहीं रही टुकडों में  बट रहा  है  मेरा देश अब यहाँ वो  सऱफरोश  वाली  रवाय़त  नहीं  रही हर  रास्ता  कठिन  है  कहें  ज़र्फ लोग ये उन रास्तों पे चलने  की, हिम्मत नही रही आये  हो 'आरज़ू ' को बताने यही  न तुम के  आज  से तुम्हारी,  ज़रूरत  नहीं  रही आरज़ू -ए-अर्जुन

Chaloge safar pe mere sath tum bhi..

आदाब चलोगे  सफ़र पे, मेरे  यार तुम भी अकेले से रहते हो,  बेज़ार तुम भी चलो ज़िंदगी के  पिएँ जाम मिलके नहीं हम अकेले हो मयख़ार तुम भी ज़हर पी रहे हो मगर चुपके चुपके हो हालात से आज लाचार तुम भी फ़क़त जी रहे हैं ये तर्क-ए-मुहब्बत ख़तावार  मैं भी, ख़तावार  तुम भी यहाँ  ज़िन्दगी की  कहानी में यारो हूँ किरदार मैं ग़र अदाकार तुम भी लबों की हसी से  छुपाते  हो आंसू बड़े खूबसूरत हो फ़नकार तुम भी अगर आग से खेलते हो तो सुन लो सुबह का बनोगे समाचार  तुम भी भला कैसे बिकते न  बाज़ार में हम रकीबों में शामिल ख़रीदार तुम भी तुझे  नेमतें  भी  खुदा  की  मिलेंगी ज़रा मुफ़लिसों से करो प्यार तुम भी यहाँ 'आरज़ू' सिर उठा कर जिया है है आसां नहीं पर चलो यार तुम भी आरज़ू -ए-अर्जुन

Roshni me bandh kar vo bechte hain tirgi.. Ghazal

आदाब खुद को कहता है ख़ुदा अब इस कदर मग़रूर है आदमी  तो   आज  दौलत,  के  नशे   में  चूर  है क्या  है  किस्मत में  तेरी तू क्यों  खुदा से पूछता लो  मज़ा अंजान  बन  के,  कुछ  भी हो  मंज़ूर है रौशनी   में   बाँध   कर   वो   बेचते   हैं   तीरगी इल्म  के  अन्धे  ख़रीदे  कह  के  यह  मशहूर  है वो  सिखाते हैं  हमें जिससे,  ख़लीफ़ा  हम  बनें पर  सिखाते  वो  नहीं  जिसमें  छिपा वो  नूर है आइना यह  कह रहा तू क्यों  भटकता  है इधर ढ़ूँढता  तू   क्यों   नहीं   तुझमें   भी  कोहेनूर  है आज  इंसाँ  चाँद  पे,  मंगल  पे भी  है  जा  रहा खोजता  है  वो  खुदा  को  पर  खुदी  से  दूर है क्यों  सफ़र  से  डर  रहे  हो  देखकर  पेचीदगी ज़िंदगी  का  खेल  सीखो  हर  मज़ा  भरपूर  है आरज़ू ' यह हर बशर से कह रहा है सीख कर रास्ते   सीधे  न   लो,   वो   मंज़िलों  से  दूर   है आरज़ू -ए-अर्जुन

Pyaar me gham hazaar rahte hai. Ghazal

आदाब प्यार  में ग़म  हज़ार  रहते हैं लोग फिर भी तैयार  रहते हैं आस्तीनो को  देख लेना तुम नाग  भी   बेशुमार  रहते  हैं वो कयामत सी ढ़ा गए थे क्यों आज  तक  बेकरार  रहते हैं सांस लेना हुआ  मुहाल यहाँ यार  गर्द-ओ-गुबार  रहते  हैं आज एक नौकरी की हसरत में लोग अब दस हज़ार रहते हैं जो सदाकत को भूल जाते हैं वो   सदा  शर्मसार  रहते  हैं बात दिल की किसी से मत कहना अब किधर राज दार रहते हैं काफ़िले है मगर  सफ़र तन्हा बस अकेले से  यार  रहते हैं मुस्कुराते   हैं  आरज़ू  कैसे जो ग़मों के  शिकार  रहते हैं आरज़ू -ए-अर्जुन

मैं अपनी बेग़म से, आज भी झगड़ पाता हूँ ...

आदाब सभी बेचारे पतियों को...  हास्यरस पर.. मैं अपनी बेग़म से, आज भी झगड़ पाता हूँ कमाल है पत्थर को,  सिर से रगड़ पाता हूँ यकीनन  मुझपे  यकीं  करते  नहीं  हैं लोग मैं  मौत  के  सामने,  कैसे अकड़  पाता  हूँ घनीं  मंहगाई   में  एक  बेटा  ही  रक्खा  है मेरे अरमानों को मुश्किल से जकड़ पाता हूँ हुनर  से कवि  और  पेशे  से  अध्यापक हूँ हैराँ  हैं सब कैसे  चार  पैसे पकड़ पाता हूँ आज ला दूँगा,  कल ला दूँगा,  यार ला दूँगा मिटाने को ख़ाहिशें वादों की रबड़ पाता हूँ रूठी  हैं सब  दीवारें नशे  मन की  भी मेरी रंगों  के  कुछ नगीनें  उसमें न जड़ पाता हूँ किताबों में उलझ कर भगवान बिसर गया बड़ी मुश्किल से मैं अब नाक रगड़ पाता हूँ थामाँ   है  आरज़ू  को  शरीक-ए-हयात  ने बेलगाम सा हूँ  ना खुद को  पकड़ पाता हूँ आरज़ू -ए-अर्जुन

याद उसकी सताती रही रात भर.. ग़ज़ल

आदाब याद  उसकी  सताती  रही  रात भर चाँदनी  भी  जलाती   रही  रात भर रौशनी  चाहती  थी  बिख़र जाऊँ मैं तीरगी  आज़माती   रही   रात   भर पास  अपने  बिठा  कर  मेरी बेबसी धुन कोई  गुनगुनाती  रही  रात  भर दोस्ती शब से  की थी  सुकूँ  के लिए दर्द  अपने   सुनाती   रही   रात  भर आग  सीने  लगा  कर  मेरी हमनशीं बिजलियाँ सी गिराती  रही रात भर दासतान-ए-सुनाकर  हसी  वो कभी आँख भी  डबडबाती  रही  रात भर फुरकतों  से  कहा  मौत  दे  दो  मुझे पर सितम मुझपे  ढ़ाती रही रात भर हम जुदा क्यों हुए  इस तरह 'आरज़ू ' सोच   गोते   लगाती   रही  रात  भर आरज़ू -ए-अर्जुन

मुझको भी सिखा दो ये, किरदार नहीं आता....

आदाब कैसे  मैं  कहूँ  तुमसे  क्यों  यार  नहीं  आता मज़दूर  की   बस्ती  में  इतवार  नहीं  आता चेहरे पे  सजाते  हो  मुस्कान  कहाँ  से  तुम मुझको भी सिखा दो ये, किरदार नहीं आता फूलों की अहमियत को समझोगे भला कैसे हाथों  में  तेरे  जब  तक वो ख़ार नहीं आता जो   दर्द   दिया   तुमने   मंजूर   किया  मैने किस्मत  में  फकीरों  की, इंकार  नहीं आता जीना  ही  सिखाती है  तकलीफ मुकद्दर की शिकवा  न  करो यह गम बेकार नहीं  आता सागर की  हकीकत से वाकिफ ही नहीं होते, लहरों  में  उफ़नता  गर  मझधार  नहीं आता होती  न  ज़रूरत  ग़र, रोटी  की  यहाँ अर्जुन तो  जान  तली  पे  रख फनकार  नहीं आता आरज़ू -ए-अर्जुन