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" अपनी किताबें हटा कर देख "

" अपनी किताबें हटा कर देख " 

इस रात के घेरे में रंग है कितने
तितलियों के परों पे रंग है जितने
हर कोना महका सा ठहरा सा कहीं
एक ही ज़ज़्बात को लिए दूर तक बिखरा कहीं
पत्तों पे ठहरी ये ओंस की बूंदे
चुपके से ठहरी पलकों को मूंदे
और हवा के झोंके से काँपता सा दिल
जुगनुओं की  रौशनी होती झिलमिल
फ़िज़ाओं में बिखरी खुशबू रजनीगंधा की 
चंचल सी चांदनी अलबेले चंदा की
और ताल मिलाते झींगुरों की आवाज़े 
पत्तों की सरसराहट और पंछियों की परवाज़े
कितना सुकून है रात की आवारगी में कहीं
गहरे राज़ छिपा रखे है जैसे किसी ने यहीँ
उस कुटिया की मुंडेर पे रौशनी की तरंगे
ख़ुशी से जशन मनाते रौशनी में कीट पतंगे
दिन की थकन से परे दिल गुनगुनाता है रात में
इन्ही लहरों, हवाओं और झींगुरों के साथ में
आँखों पे लगे मोटे चश्मे साफ़ देख नहीं पाते जिन्हें 
फिर ये बंद सी पलके कैसे देख लेती है उन्हें
हम उलझे रहते है किताबों की उलझनों में कभी
यां दौड़ रहे है दुनिया के पीछे पीछे कहीं
पर मिलता नहीं सुकून मंजिल पे भी कहीं
 इस चार दिन की चांदनी को भूलें अब नहीं
है छिपी ये रौशनी कहाँ?
रात दिन के पर्दों को गिरा के देख
ज़िंदगी के रहस्य मिलेंगे कहाँ
ज़रा अपनी ये किताबों को हटा के देख. 

आरज़ू-ए-अर्जुन 

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