Skip to main content

ग़ज़ल उलझे हुए हमको तो ये ज़ज़्बात मिले है

                      ग़ज़ल 
             ( रदीफ़ " मिले हैं )
          2221, 222, 2221, 222

उलझे हुए हमको तो ये ज़ज़्बात मिले है
तेरे इश्क़ में हमको तो ये एहसास मिले है

मदमस्त तेरी आँखें क़ातिल भी कभी होंगी
आँखों से मेरे दिल को ज़ख़्म ख़ास मिले है

बेचैन से रहते हो बेताब भी होते हो
हमको भी तेरे हमदम कुछ राज़ मिले है

ऐसा भी तो होता है मोहब्बत के रास्तों पे
दिल तोड़ते वही हैं जो हमराह मिले है

बातों से मेरी जाना हो जाओगे तुम पागल
आरज़ू-ए-अर्जुन को वो अल्फ़ाज़ मिले है

आरज़ू-ए-अर्जुन



Comments

Popular posts from this blog

चलो योग करें

Aaj ke yoga divas par meri ye rachna..          चलो योग करें एक  काम सभी  हम रोज़ करें योग   करें   चलो   योग   करें भारत  की  पहचान   है   यह वेद-पुराण  का  ग्यान  है  यह स्वस्थ   विश्व   कल्याण   हेतु जन जन का अभियान है यह सीखें    और     प्रयोग    करें योग   करें   चलो   योग   करें मन  को निर्मल  करता  है यह तन को  कोमल  करता है यह है  यह  उन्नति  का  मार्ग  भी सबको  चंचल  करता  है  यह बस  इसका  सद  उपयोग करें योग   करें   चलो    योग   करें पश्चिम   ने   अपनाया   इसको सबने   गले   लगाया    इसको रोग  दोष   से  पीड़ित  थे  जो राम  बाण  सा  बताया  इसको सादा    जीवन   उपभोग   करें योग   करे...

DIL TUMHARA JAB CHURAYA JAYEGA.. GHAZAL

आदाब दिल तुम्हारा जब चुराया जाएगा दोष तुमपर ही लगाया जाएगा इस मुहब्बत में फ़क़त पहले पहल तुमको पलकों पर बिठाया जाएगा तोल लेना पर को तुम अपने यहाँ तुमको ऊँचा भी उड़ाया जाएगा उड़ना लेकिन छोड़ मत देना ज़मीं तुमको नीचे भी गिराया जाएगा झांकना मत आंखों में वो फ़र्ज़ी है ख़ाब झूठा ही दिखाया जाएगा बढ़ रहे आहिस्ता से तुम मौत को यह नहीं तुमको बताया जाएगा है मुहब्बत खूबसूरत सी बला जाल में इसके फंसाया जाएगा प्यार में वादा करो पर सोच कर देखना, तुमसे निभाया जाएगा यह नहीं कहता मुहब्बत मत करो टूट कर क्या तुमसे चाहा जाएगा जो मुहब्बत पाक सी है 'आरज़ू' उसके आगे सर झुकाया जाएगा आरज़ू-ए-अर्जुन

पहला क़दम उठाओ !

बस,पहला क़दम उठाओ  हमने खुद को खुद की ही बेड़ियों में जकड लिया है, अपने ही दायरे में सिमट कर रह गए हैं। हमने अपनी सोच समझ को सीमित कर लिया है, अपनी सहूलियत के मुताबिक एक सुरक्षा घेरा बना लिया है, अब उस घेरे से बाहर क़दम रखने में डर लगता है। जितनी ज़रूरत है उतना ही दिमाग चलता है उतने ही पाँव चलते है यहाँ तक कि हमने अपने ख़ाबों को भी दायरे में बांध रखा है।  बड़ी अजीब सी बात है, आज ख़ाब किसी और के हैं, देखता कोई और है, पूरा कोई और कर रहा है, कमाल है। पूरी प्रणाली मशीनी हो गई है। आज हम अपने नहीं अपनों के ख़ाब पूरे करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके लिए मेहनत हम नहीं हमारे अपने यानि माँ बाप, बड़े भाई यां बहिन करती हैं, सिर्फ़ ज़रिया हम बनते हैं। इस तरह से हम कुछ बन भी गए तो हमारी योग्यता क्या होगी,हमारी गुणवता क्या होगी। हम दूसरों से साधारण होंगे, दूसरे हमसे ज्यादा अक्लमंद होंगे, उनका तज़ुर्बा हमसे बेहतर होगा। और ऐसा क्यों होता है ? क्योकि हमने अपना पहला कदम खुद नहीं उठाया था। हमने अपनों की बैसाखिया थाम रखी थी। कभी धूप बर्दाश्त ही नहीं की, बारिश में ठिठुर के का...