Skip to main content

" दीवानगी "

" दीवानगी "

मैं सुलझे हुए आधुनिक लोगों का प्यार नहीं हूँ
मैं उस अनपढ़ लड़के के प्यार का एहसास हूँ
जो गीली रेत पर अपने महबूब का नाम यूँही
आड़ा तिरछा ऊट पटांग सा लिखा करता है । 
मैं सजी हुई आवाज़ और अलफ़ाज़ का मोहताज़ 
भी नहीं हूँ ,मैं तो उस गूंगे की आवाज़ सा हूँ 
जो आँखों और हाथों से दिल के हाल कहा करता है। 
नहीं जगमगाता मैं सैंकड़ों जुगनुओं की तरह रात में
मैं तो वो परवाना हूँ जो तेरे प्यार की रौशनी में
गुमनाम सा जला करता है गुमनाम मरा करता है । 
जहाँ भर की दौलत शोहरत भी कहाँ सुकून देती है 
दिलजलो को  इस जहाँ में भी हमनशीं 
मैं तो वो दीवाना हूँ जो महबूब के प्यार में पागल 
महबूब की याद में  हर हाल में मस्त बना रहता है। 
मैं वो आशिक़ भी नहीं जो मोहब्बत में मक़बूल
होने के लिए पत्थर खाते है सहरा में जलते है
मैं तो वो आशिक़ हूँ आरज़ू जो अपनों की ख़ातिर
हरपल, हरदिन, हररात सलीब पे चढ़ा करता है। 

आरज़ू-ए-अर्जुन  
 
  

Comments

Popular posts from this blog

चलो योग करें

Aaj ke yoga divas par meri ye rachna..          चलो योग करें एक  काम सभी  हम रोज़ करें योग   करें   चलो   योग   करें भारत  की  पहचान   है   यह वेद-पुराण  का  ग्यान  है  यह स्वस्थ   विश्व   कल्याण   हेतु जन जन का अभियान है यह सीखें    और     प्रयोग    करें योग   करें   चलो   योग   करें मन  को निर्मल  करता  है यह तन को  कोमल  करता है यह है  यह  उन्नति  का  मार्ग  भी सबको  चंचल  करता  है  यह बस  इसका  सद  उपयोग करें योग   करें   चलो    योग   करें पश्चिम   ने   अपनाया   इसको सबने   गले   लगाया    इसको रोग  दोष   से  पीड़ित  थे  जो राम  बाण  सा  बताया  इसको सादा    जीवन   उपभोग   करें योग   करें    चलो   योग   करें आरज़ू-ए-अर्जुन

बेटियों पे ग़ज़ल

ग़ज़ल दौलत नहीं,   ये अपना संसार  माँगती हैं ये बेटियाँ  तो हमसे,  बस प्यार माँगती हैं दरबार में ख़ुदा के जब  भी की हैं दुआएँ, माँ बाप की ही खुशियाँ हर बार माँगती हैं माँ  से दुलार, भाई से  प्यार  और रब  से अपने पिता की उजली  दस्तार माँगती हैं है दिल में कितने सागर,सीने पे कितने पर्बत धरती के जैसा अपना, किरदार माँगती हैं आज़ाद हम सभी हैं, हिन्दोस्ताँ में फिर भी, क्यों 'आरज़ू' ये अपना अधिकार माँगती हैं? आरज़ू

हमीं बस थे कहीं भी वो नहीं था ( ghazal )

ग़ज़ल  बहर -  1222        1222        122 बहर - मुफाईलुन, मुफाईलुन, फऊलुंन काफ़िया ( 'ओ' स्वर ) रदीफ़ ( नहीं था ) ------------------------------------------------- हमीं बस थे कहीं भी वो नहीं था मेरी चाहत के काबिल वो नहीं था जिसे सारी उमर कहते थे अपना रहे  हम ग़ैर अपना वो नहीं था किसे कहते यहाँ पर दर्द दिल का किसी पे अब यकीं दिल को नहीं था रहे बिखरे यहाँ पर हम फ़िसल के कभी ख़ुद को समेटा जो नहीं था  कभी तोडा कभी उसने बनाया खिलौना पास खेलने को नहीं था बुरा कहते नहीं हम ' आरज़ू ' को बुरे थे हम बुरा पर वो नहीं था आरज़ू-ए-अर्जुन