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" मैं अक्सर देख के हँसता हूँ "

मैं अक्सर देख के हँसता हूँ 

बच्चा झूठ बोल कर पैसे मांगे तो वो गन्दा है
बड़े अपने कारोबार में झूठ बोले तो वो धंधा है
लड़की चुपके से किसी से बात करे तो उसपे शक है
पत्नी चुपके से जेब से पैसे निकाले तो उसका हक़ है

सदा सच बोलो, दूसरों के काम आओ
ऐसा स्कूल में सिखाया जाता है
गरीब के पास फीस कम है
उसकी कमीज़ के बटन विषम है
तो उसे स्कूल से निकाला जाता है

कोई मजबूर अपनी मजबूरी रोये
तो उसे फटकार के कहते है
चल-चल हमारे पास पैसे नहीं
होटल में वेटर को सौ रुपये देकर
सबको दिखाते है हम ऐसे वैसे नहीं

इतने में छोटा बेटा बोला, पापा!
सैम बड़े स्कूल में पढ़ता है
मैं भी वहीँ पढ़ने जाऊंगा
बेटा, उसके पिता मिल मालिक, मैं मजदूर
इतने पैसे भला मैं  कहाँ से लाऊंगा

इतने में बड़ा बेटा बोला, पापा!
मुझे दस रुपये नहीं सौ रुपये दो
अब मैं कॉलेज पढ़ने जाता हूँ
सभी पिज़्ज़ा- बर्गर खाते है
और मैं वहां समोसे खाता हूँ

पापा भड़के और बोले!
तुम पढ़ते  हो यां जशन मानते हो
ऐसे तो तुम कुछ न बन पाओगे
शास्त्री, कलाम जैसे बनो
वरना! तुम तो हमें मरवाओगे

अब बेटी की बारी थी, बोली, पापा!
कैसे करूँ दुनियां मुट्ठी में
एक 3 G, 4 G फ़ोन ले आओ न
सभी i phone लिए घूमते है
आप android  ही दिलवाओ न

बेटा! चिट्ठी, कबूतर के ज़माने में
तुम लोगो ने कितना सताया था,
अब 3G, 4G में कितना कहर बरपाओगे
फेसबुक पे विडिओ कोल्लिंग करके
माँ-बाप के रातो की नींद उड़ाओगे

अब पत्नी जी कैसे चुप बैठती, बोली
अपने बीवी बच्चो के
अरमानो की चिता जलाओगे
आदर्श उसूलों की बातें करके
उल्टा हमें समझाओगे

छोड़ो सारे उसूल वसूल
अब आप भी वैसे बन जाओ  न
दफा करो ये आदर्श उसूल
इस दुनिया के रंग में रंग जाओ न

पति ने समझाया उसे,
इन्ही आदर्शो के बूते
मुझसे सारे हाथ मिलाते है
वरना वैसे लोग तो अक्सर
कारों में छुप के निकल जाते है

आप सिर्फ बातें करते हो
इन उसूलों से आप कुछ नहीं पा सकते
लोग चारा, ज़मीन और कोयला खा के भी
हट्टे कट्टे हो गए
और आप अपना आदर्श उसूल नहीं खा सकते

अरे भग्यवान !
जिसे मोटा ताज़ा देखती हो
अब उनकी चर्बी पिघल रही है
उनके सताये एक पागल के कारन
उनकी नब्ज़ रुक-रुक के चल रही है

लो! ये सिलंडर ख़तम हो गया
अब क्या जलाऊ मैं, इसकी कीमत से
खून जलता है इसपे क्या पकाऊ मै
6 सिलंडर के बाद 7वां  कहाँ से लाऊं मैं
चूल्हे-चीनी में सब खर्च हो जाता है
घर कहाँ से चलाऊँ मैं

आप चालाक लोमड़ी के ज़माने में
गाँधी के बंदर लिए घूमते हो, 
बिल्ली कबसे दूध गटका रही है
और आप अंधे सांप की तरह
एक बीन की धुन पे झूमते हो   

हाँ-हाँ ! नहीं छोडूंगा अपने आदर्श उसूल
इनके चलते मेरी सांस बाकी है
बंद कर लिए हो नेताओं ने अपने
आँख, मुह, कान तो क्या
गाँधी के सिधांत तो अब भी मुझमें बाकी है                        

 (आरज़ू)
 

  

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