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( बेखबर मुसाफिर )


              ( बेखबर मुसाफिर )

मंजिल की धुन में ऐ बेखबर राही
तू नाप रहा है कुछ राहें अनचाही
जब चला था सफ़र पे तो कितना शोरगुल था
क्या सुन सकता है वो आवाज़े मनचाही
अपने क़दमों की आवाज़ साफ सुन रहा है
और मन में कुछ ताने-बाने बुन रहा है
यूँ मुँह फेर के चल रहा है मदहोशी में
कितने सवाल उठ खड़े हुए तेरी ख़ामोशी में
चलते रहना जिंदगी है पर थोडा ठहर तो कहीं
बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं 

तू अकेला होता तो यह  कुछ और बात थी
तुझ संग बंधे थे कुछ धागे और डोर तेरे हाथ थी
मंजिल की चाह में उन धागों को चटकाया होगा
उन कोमल फूल-कलियों को तुमने मुर्झाया होगा
वो टूटे बिखरे पड़े रहें होंगे उन्ही राहों पर,
और छोड़ आया होगा कितने अश्क उन निगाहों पर
ऐसे में मंजिल पा भी ली तो क्या करेगा तू
खुद ही हसेगा, और खुद ही रोया करेगा तू
इसलिए रुक कर देख कोई हमराही रूठा तो नहीं
बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं

यह दुनिया ज़ज्बाती है ज़ज्बात बसते है इधर
इनको पैरों तले रौंद कर तूं जायेगा किधर 
देख उन तरसती निगाहों के क्या अरमान है
तुम्हें करना होगा इन अश्कों का सम्मान है
तुम्हे बढ़ते-फूलते  देख उन्हें भी ख़ुशी होती होगी
तेरी कामयाबी पे उनकी आंखें ख़ुशी से रोती होगी  
रोका होगा आंधियों को चट्टान  बनकर  तेरे लिए
चलना आ गया तो छोड़ दिया, अकेले ही चल दिए
देख! फ़र्ज़ का एक-2 कोना, कोई  अछूता तो नहीं
बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं 

फ़र्ज़ से आँख चुरा कर किसने सुकून पाया  है
मंजिल गले लगाये उसे, जिसने फ़र्ज़ निभाया है
तू अपने पूरे होशो-हवास में इन  राहों पे चल
आँधियों से अपनों को संभाल और खुद भी संभल
पैरों को वज्र कर और हाथों को परशु जैसा बना
काट कर इन पर्वतों को एक नई राह को अपना
कर रौशनी इतनी राहों में के सब रौशन हो जाए
बसना ऐसे दिलों में के उनकी धड़कन बन जाए
महसूस करते रहना तुम, कोई दिल टूटा तो नहीं
बेखबर मुसाफिर, मुड़ के देख, कुछ छूटा तो नहीं

(आरज़ू )


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