" उल्झन "
एक उल्झन सी रहती है अक्सर दिलो-दिमाग में
किसे सच कहें किसे झूठ मान लें,
कौन बड़ा है वक़्त यां जिंदगी, इस जहान में
वक़्त खुदगर्ज, जिंदगी बेवफा है
फिर किसके लिए आरज़ू रहती है इंसान में
हर कोई उलझा हुआ, उथला हुआ, पुथला हुआ
इस रंजिशे मैदान में एक-दूसरे से भिड़ता हुआ
किसी को राह की तलाश किसी को वाह की तलाश
कोई लहरों से खेलता कोई शोलों को झेलता
जाने क्या सूरत होगी जिंदगी की, अब इसके अंजाम में
एक मायूसी सी है एक ख़ामोशी सी है
हर रिश्ते में छुपी एक नामोशी सी है
कोई ठहराव नहीं कोई बहराव नहीं
किस विश्वास पे विश्वास करें कोई जवाब नहीं
किसे अपना कहें, साया भी नहीं अपना इस जहान में
खुद से बेख़बर, भटकता है दर-बदर
कभी काबा कभी काशी, न जाने किस-किस डगर
राहें तमाम है फिर भी कोई मंज़िल नहीं
सागर में मौजें भी असीम है पर कोई साहिल नहीं
किसने छोड़ दिया है डूबता हुआ, हमें इस मझधार में
है कोई राह कहीं तो बताएं मुझे भी
है कोई रहबर तो मिलाएं मुझे भी
मैं भी इस भटकन से आज़ाद होना चाहता हूँ
इन उलझनों से शाद-आबाद होना चाहता हूँ
शायद ढूँढ लूँ अपना अक्स, मिट्टी के इस इंसान में
एक उल्झन सी रहती है अक्सर दिलो-दिमाग में
(आरज़ू)
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