( जलती मानवता )
चंद अल्फाजों ने इंसान एक काम कर दिया
लोगों ने गीता और क़ुरान तो पढ़े
जाने क्या सीखा के इंसानियत को शर्मसार कर दिया
इस धर्म की लड़ाई में तेरे ही बन्दों ने,
न जाने कितने मासूमो को कुर्बान कर दिया
न जाने कितने मासूमो को कुर्बान कर दिया
क्यों नहीं देखता इन्सां काग़ज कलम किताबों को
क्यों नहीं समझता इन्सां मोहब्बत के हिसाबों को
पंडित और मौलवी न जाने किस जंग में शुमार है
ज़मीं तेरी आसमा तेरा फिर किस बात का खुमार है
तेरी बगिया से खुशबु ढूंढ़ता रहता हूँ मैं
जिस बगिया को दिया था तूने हमने रेगिस्तान कर दिया
तेरे बाग बगीचों को बंकर बनते देखा
तेरे भी आशियाने को कंकर बनते देखा
बांसुरी की आवाज से ज्यादा बंदूक की आवाज गूंजे
दर पे तेरे भजन नहीं, अब सिक्कों की आवाज गूंजे
सच्ची भक्ति श्रद्धा को धूप में झुलसते देखूँ मैं
आज तेरे ही दर पे लोगों ने दौलत को भगवन कर दिया
देख कर अपने बन्दे बिलखता तो होगा तू भी
जलते सुलगते देख उन्हें सुलगता तो होगा तू भी
मिलता नहीं सुकून इन पीर दरबारों से अब कहीं
यह मंदिर मस्जिद तेरे फिर क्यों दिखता तू नहीं
गुलशन करदे फिर से हमारे दिलो-दिमाग को
जिसे हमने आज मंदिर से शमशान कर दिया
( आरज़ू )
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