( क्यों मुस्कुराना पड़ा )
न जाने पलकों पे कितने ख्वाब उठाए चल रहा था
वक़्त ने इतना थकाया के होश खोना पड़ा
फिर हर हर ख्वाब से हाथ धोना पड़ा
जिन होटों ने हर वक़्त कह्कही लगाई थी
उन होटों को ज़ार-ज़ार रोना पड़ा
जिस भी हसरत को गले से लगाया
उस हर शय को क्यों खोना पड़ा
एक मुददत से नसीब के साथ ज़द्दो ज़हद चलती रही
पता नहीं वो कब जीत गया सब कुछ और मुझे सब कुछ हारना पड़ा
फिर किसी ने हाथ बढ़ाया अगर तो न जाने क्यों
मुझे अपना हाथ पीछे हटाना पड़ा
काश यह जिंदगी का बोझ इतना भारी न होता
काश रो सकते अपने हर दर्द को उजाले में भी
पर मज़बूरी यह थी कि हमें हर दर्द को
अँधेरे में भी छुपाना पड़ा
न जाने मुझे क्यों मुस्कुराना पड़ा
( आरज़ू)
Comments
Post a Comment