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" दीवानगी "

" दीवानगी "

मैं सुलझे हुए आधुनिक लोगों का प्यार नहीं हूँ
मैं उस अनपढ़ लड़के के प्यार का एहसास हूँ
जो गीली रेत पर अपने महबूब का नाम यूँही
आड़ा तिरछा ऊट पटांग सा लिखा करता है । 
मैं सजी हुई आवाज़ और अलफ़ाज़ का मोहताज़ 
भी नहीं हूँ ,मैं तो उस गूंगे की आवाज़ सा हूँ 
जो आँखों और हाथों से दिल के हाल कहा करता है। 
नहीं जगमगाता मैं सैंकड़ों जुगनुओं की तरह रात में
मैं तो वो परवाना हूँ जो तेरे प्यार की रौशनी में
गुमनाम सा जला करता है गुमनाम मरा करता है । 
जहाँ भर की दौलत शोहरत भी कहाँ सुकून देती है 
दिलजलो को  इस जहाँ में भी हमनशीं 
मैं तो वो दीवाना हूँ जो महबूब के प्यार में पागल 
महबूब की याद में  हर हाल में मस्त बना रहता है। 
मैं वो आशिक़ भी नहीं जो मोहब्बत में मक़बूल
होने के लिए पत्थर खाते है सहरा में जलते है
मैं तो वो आशिक़ हूँ आरज़ू जो अपनों की ख़ातिर
हरपल, हरदिन, हररात सलीब पे चढ़ा करता है। 

आरज़ू-ए-अर्जुन  
 
  

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