आदाब
सभी बेचारे पतियों को... हास्यरस पर..
मैं अपनी बेग़म से, आज भी झगड़ पाता हूँ
कमाल है पत्थर को, सिर से रगड़ पाता हूँ
यकीनन मुझपे यकीं करते नहीं हैं लोग
मैं मौत के सामने, कैसे अकड़ पाता हूँ
घनीं मंहगाई में एक बेटा ही रक्खा है
मेरे अरमानों को मुश्किल से जकड़ पाता हूँ
हुनर से कवि और पेशे से अध्यापक हूँ
हैराँ हैं सब कैसे चार पैसे पकड़ पाता हूँ
आज ला दूँगा, कल ला दूँगा, यार ला दूँगा
मिटाने को ख़ाहिशें वादों की रबड़ पाता हूँ
रूठी हैं सब दीवारें नशे मन की भी मेरी
रंगों के कुछ नगीनें उसमें न जड़ पाता हूँ
किताबों में उलझ कर भगवान बिसर गया
बड़ी मुश्किल से मैं अब नाक रगड़ पाता हूँ
थामाँ है आरज़ू को शरीक-ए-हयात ने
बेलगाम सा हूँ ना खुद को पकड़ पाता हूँ
आरज़ू -ए-अर्जुन
सभी बेचारे पतियों को... हास्यरस पर..
मैं अपनी बेग़म से, आज भी झगड़ पाता हूँ
कमाल है पत्थर को, सिर से रगड़ पाता हूँ
यकीनन मुझपे यकीं करते नहीं हैं लोग
मैं मौत के सामने, कैसे अकड़ पाता हूँ
घनीं मंहगाई में एक बेटा ही रक्खा है
मेरे अरमानों को मुश्किल से जकड़ पाता हूँ
हुनर से कवि और पेशे से अध्यापक हूँ
हैराँ हैं सब कैसे चार पैसे पकड़ पाता हूँ
आज ला दूँगा, कल ला दूँगा, यार ला दूँगा
मिटाने को ख़ाहिशें वादों की रबड़ पाता हूँ
रूठी हैं सब दीवारें नशे मन की भी मेरी
रंगों के कुछ नगीनें उसमें न जड़ पाता हूँ
किताबों में उलझ कर भगवान बिसर गया
बड़ी मुश्किल से मैं अब नाक रगड़ पाता हूँ
थामाँ है आरज़ू को शरीक-ए-हयात ने
बेलगाम सा हूँ ना खुद को पकड़ पाता हूँ
आरज़ू -ए-अर्जुन
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