ग़ज़ल
हर पल पहेली बुझा रही है ज़िंदगी
रेत सी फिसलती जा रही है ज़िंदगी
कोई वज़ह नहीं है मुस्कुराने की
फिर भी मुस्कुरा रही है ज़िंदगी
हर साँस से कहती है ज़िंदा हो तुम
खुद से लड़ना सिखा रही है ज़िंदगी
मैं रूठ भी गया तो कहाँ जाऊँगा
मेरे पीछे पीछे आ रही है ज़िंदगी
नज़रें चुराने से हल नहीं निकलते
यही बात मुझको बता रही है ज़िंदगी
क्यों छोड़ दिया चलना एक ठोकर खाके
अपाहिजों को भी चलना सिखा रही है ज़िंदगी
ये रणभूमि है गिरके उठने वालों की
चुनौती दे के समझा रही है ज़िंदगी
अरे मरने से पहले क्यों मरते हो यारो
हर हाल में जीना सिखा रही है ज़िंदगी
अभी ज़िंदा हो तो साबित कर दो आरज़ू
क्यों तुमपे इतना इतरा रही है ज़िंदगी
आरज़ू-ए-अर्जुन
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