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1984 के दंगे ( अपनों ने फूकी थी अपनों की लाशें )

ग़ज़ल 
मात्रा : 222  222  222  22
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आँखों से देखी थी शोलों की रातें 
अपनों ने फूकी थी अपनों की लाशें 

गैरों की चुनरी की ख़ातिर वो मैंने 
डाली थी ख़तरे में अपनों की साँसें 

ज़ोरों से धड़के थे लोगों के सीने 
मुर्दा जब देखी थी अपनों की लाशें 

बरसों तक छाया था गहरा अँधेरा 
सहमी सी रहती थी अपनों की आंखें 

एक एक के घर को तब फूका था उसने
नारों से गूँजी थी दंगों की रातें

गुजरा था काला सा अरसा जो मेरा 
कसती थी हर दिन वो ख़तरों की फाँसें 

शोलों में ख़ाबों को झोंका था मैंने 
करता मैं कैसे फिर सपनों की बातें 

वो नन्ही सी जान बचाने की ख़ातिर 
बेटे की काटी थी केसों की गाँठें 

दहशत सी नाची थी उस दिन दिल्ली में 
मौत बनी थी उस दिन बूढ़ों की खांसें

ख़ामोशी को ओढ़े कुर्सी पे बैठे 
सोचा था सिर्फ उसने वोटों की गांठें 

कैसे मैं भूलूंगा मंज़र वो यारो 
अपनों के हाथों में अपनों की लाशें 

'अर्जुन ' क्या रोया मेरी बातें सुनकर 
 मैंने  रुलाईं  हैं  ग़ज़लों की आँखें  

आरज़ू-ए-अर्जुन   

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