ग़ज़ल मात्रा : 222 222 222 22 ------------------------------------------ वो अब अपने राज़ छुपाते है हमसे झूठा दिल का हाल बताते हैं हमसे आते जाते मिलते भी हैं हसते भी मिलने का दस्तूर निभाते है हमसे ऐसी बेरुखी का भी क्या मतलब है पूछा तो मज़बूर बताते हैं हमसे कुछ दिख ना जाये आँखों में उनकी तो हरपल अपनी आँख चुराते हैं हमसे फ़ीकी सी लगने लगती हैं दुनिया तब खुद को जब अंजान बताते हैं हमसे जान लुटा देते थे हमपर पहले वो जाने अब क्यों जान छुड़ाते हैं हमसे रेज़ा रेज़ा होके चाहा था " अर्जुन " गुज़रे कल की बात सुनाते है हमसे आरज़ू-ए-अर्जुन
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