"मैं जानता था उसदिन"
तेरे लबों की लरज़िश
झुकती पलकों की हया
और पैरहन में लिपटा
महताबे नूरे बदन तेरा
मैं आज भी मुंतज़िर हूँ
उसी लम्हें में.....
एक अरसा गुज़र गया
उस वाक्या को गुजरे
मगर तेरी आँखों का
आबोशार, बरहम ज़ुल्फें,
हथेलियों से उंगलीयों को
दबाती हुई सुन्न सी
झुके सिर को लिए आज भी
खड़ी हो तुम मेरे सामनें
मैं जानता था उसदिन भी
मैं जानता हूँ आज भी
तेरे पास कोई जवाब नहीं होगा
तेरी रूखसती का......
मैं जानता था मेरी सुर्ख
लाल मोहब्बत की चादर
तेरे बाबुल की ग़ुलाबी पगड़ी
और मां की धानी चुनरी से
जरूर फीकी रह जाएगी
तुमने सुर्ख चादर उतार कर
सुर्ख चुनरी ओढ़ ली...
उस दिन कांपती सी तुम लौटी
और लड़खड़ाता मैं आया
न तुमने कोई आवाज़ सुनी
न मैं ही कुछ कह पाया
मैं जानता था उसदिन भी
मैं जानता हूँ आज भी
अब रूह के बिना जीना ही
मुकद्दर होगा। ....
आरज़ू-ए-अर्जुन
तेरे लबों की लरज़िश
झुकती पलकों की हया
और पैरहन में लिपटा
महताबे नूरे बदन तेरा
मैं आज भी मुंतज़िर हूँ
उसी लम्हें में.....
एक अरसा गुज़र गया
उस वाक्या को गुजरे
मगर तेरी आँखों का
आबोशार, बरहम ज़ुल्फें,
हथेलियों से उंगलीयों को
दबाती हुई सुन्न सी
झुके सिर को लिए आज भी
खड़ी हो तुम मेरे सामनें
मैं जानता था उसदिन भी
मैं जानता हूँ आज भी
तेरे पास कोई जवाब नहीं होगा
तेरी रूखसती का......
मैं जानता था मेरी सुर्ख
लाल मोहब्बत की चादर
तेरे बाबुल की ग़ुलाबी पगड़ी
और मां की धानी चुनरी से
जरूर फीकी रह जाएगी
तुमने सुर्ख चादर उतार कर
सुर्ख चुनरी ओढ़ ली...
उस दिन कांपती सी तुम लौटी
और लड़खड़ाता मैं आया
न तुमने कोई आवाज़ सुनी
न मैं ही कुछ कह पाया
मैं जानता था उसदिन भी
मैं जानता हूँ आज भी
अब रूह के बिना जीना ही
मुकद्दर होगा। ....
आरज़ू-ए-अर्जुन
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