" खरपतवार "
खेत किनारे बैठ कर किसानों को मैं देख रहा हूँ
तन पे ढीले ढाले कपडे सर पे एक ढीली पगड़ी है
भिन्न -२ से दिखते हैं वो पर मेहनत उनकी सम तगड़ी है
धूप-छाँव की परवाह किसे है बस खेत जोतने की दौड़ लगी है
घर बार की चिंता तो है पर फसल उगाने की होड़ लगी है
पूरा परिवार एकजुट होकर कर रहा है खेत की तैयारी
घास तिनकों को उखाड़ते जाते साफ़ कर रहे एक एक क्यारी
देख उन्हें मन में एक सवाल उठा फिर मैंने उनसे पूछ लिया
क्यों तोड़ते हैं ये तिनके क्या कोई ये है हथियार ?
वो बोले उससे भी खतरनाक, क्योकि ये है खरपतवार !
पढ़ा था मैंने कभी कक्षा में कि खरपतवार क्या होता है
ये रोकती है विकास फसलों का ऐसा प्रभाव इनका होता है
समझ बूझ सब बातों को मेरे मन में कुछ आये सवाल
मैं जहां रहता हूँ शहर में वहां भी उग रहे हैं बवाल
जब किसी का बच्चा कहीं स्कूल पढ़ने को जाता है
सीट की चिंता बाप को रहती इसलिए मोटी रकम साथ में लाता है
ये सीट की चिंता और बढ़ती है जब बच्चा कॉलेज में जाता है
अपने वजन के जितना पैसा बाप कॉलेज में जमा करवाता है
फिर छिनते देख अपने हकों को विद्यार्थी करते खुद पे वार
उखाड़ना होगा हमें इसे भी क्योकि यह है एक खरपतवार
कहानी ख़त्म नहीं हुई है यहाँ से कतार तो शुरू हुई है
राशन के लिए राशन कार्ड जरूरी है तो सरकारी दफ्तर एक मज़बूरी है
सरकारी दफ्तर असल मंदिर हैं जहाँ ये भगवन करते मनमानी
देखकर लम्बी कतार वहां पर आम आदमी करता नादानी
कतार से हटके पिछले द्वार से सटके,फाइल के साथ धन लड्डू चढ़ाता
भगवन के प्रसन्न होनेपर घंटी बजाकर घर को जाता
सरकारी काज अगर कोई हो यही क्रिया दोहरानी होगी
नहीं करोगे ऐसा अगर तुम देखना फिर कैसी परेशानी होगी
बात एक मुददे की नहीं इसपे करना होगा गहन विचार
विकास दर को रोक रही है क्योकि यह है एक खपतवार
सरकार की पारित की नीतियों पर अक्सर उठते रहें सवाल
और इनके खिलाफ जाने की आम आदमी की क्या है मज़ाल
स्कूल की परीक्षा तो पता नहीं चुनाव की ऐसी तैयारी करते है
लूटा हुआ धन जनता का उन दिनों उनपे व्यय करते है
है कितने दानवीर सज्जन ये कहीं खाली हाथ नहीं जाते है
किसी को चूल्हा, किसी को साईकिल, किसी को घर का वादा कर आते है
लोभ लालच में फस कर आदमी चुन लेता अपनी मौत का सामन
फिर उठाता बोझ ग़ुरबत का तिल तिल मरता सुबहो शाम
समझता नहीं अपनी शक्ति को हर बार करता पैर पे वार
उखाड के फैंक दो लालच को, क्योकि है यह एक खपतवार
अपने हितों की रक्षा के लिए हम करते है जिनपे विश्वास
वही लोग करते रहते है अक्सर हमसे विश्वासघात
है दहशत इतनी थाने कचहरी की डर के मारे कोई नाम नहीं लेता
फस जाये कोई चंगुल में तो फिर आराम का कोई नाम नहीं लेता
आम आदमी थाने में तो रपट दर्ज करवाने से डरता है
इसलिए वो बहु-बेटियों को घर में चुप रहने को कहता है
यह कानून व्यवस्था और कचहरी लोगों पे है कहर बरपाता
दादा जी की ज़मीन का मसला फिर पोता है लड़ने को जाता
यह रोग नहीं, है कोई विषाणु जो कर रहा निरन्तर अपना विस्तार
कीटनाशक छिड़कना होगा क्योकि है यह एक खपतवार
इस नवचेतन युग में भी हम करते है घरों में अत्याचार
बेटे की लालसा में कितनी बेटीयों को देते है कोख में मार
ग़र बच गई समाज में जिन्दा तो फिर क्या क्या फ़र्ज़ निभाती है ये
पिला के अमृत मृत समाज को खुद विष पी कर रह जाती है ये
होता रहता इनका शोषण इस बैरी समाज के हर रूप में
देती रहती भिन्न भिन्न परीक्षा, माँ, बेटी, प्रेमिका बहू के रूप में
परदे से निकल कर जब इस समाज में कुछ करने की चाह होती है
सिमट कर जाती, नज़र झुकाती क्योकि उनकी बदन पर निगाह होती है
क्या पागलपन रहता उनपे क्यों हवस है रहती उनपे सवार
आओ ईलाजे मिलजुल कर हम क्योकि है यह एक खपतवार
मन की शांति पाने को जब हम मंदिर मस्जिद को जाते है
प्रभु के दूत निवारण हेतु कई तरह के उपाय बताते है
गृह, नक्षत्र, कलह,कलेश में आम आदमी फस के रह जाता
दुखों से मुक्ति पाने खातिर अंधविश्वासों में धस के रह जाता
धर्म के ठेकेदारों ने खोले है जगह जगह पर कई पंडाल
और आस्था के अंधों की वहां पे रहती है अब मारोमार
मसीह हो, मज़ार हो या कोई दरबार, डरा डरा के लोगो को करते है व्यापार
आँखे बंद है इस चकाचौंध व्यापार में, राख़ तक बिक जाती है अब उनके प्रशाद में
अंध विश्वास की पट्टी हटाओ खोल के देखो मन के द्वार
सड़ रही है आस्था इनसे क्योकि यह है एक खरपतवार
आरज़ू-ए-अर्जुन
खेत किनारे बैठ कर किसानों को मैं देख रहा हूँ
तन पे ढीले ढाले कपडे सर पे एक ढीली पगड़ी है
भिन्न -२ से दिखते हैं वो पर मेहनत उनकी सम तगड़ी है
धूप-छाँव की परवाह किसे है बस खेत जोतने की दौड़ लगी है
घर बार की चिंता तो है पर फसल उगाने की होड़ लगी है
पूरा परिवार एकजुट होकर कर रहा है खेत की तैयारी
घास तिनकों को उखाड़ते जाते साफ़ कर रहे एक एक क्यारी
देख उन्हें मन में एक सवाल उठा फिर मैंने उनसे पूछ लिया
क्यों तोड़ते हैं ये तिनके क्या कोई ये है हथियार ?
वो बोले उससे भी खतरनाक, क्योकि ये है खरपतवार !
पढ़ा था मैंने कभी कक्षा में कि खरपतवार क्या होता है
ये रोकती है विकास फसलों का ऐसा प्रभाव इनका होता है
समझ बूझ सब बातों को मेरे मन में कुछ आये सवाल
मैं जहां रहता हूँ शहर में वहां भी उग रहे हैं बवाल
जब किसी का बच्चा कहीं स्कूल पढ़ने को जाता है
सीट की चिंता बाप को रहती इसलिए मोटी रकम साथ में लाता है
ये सीट की चिंता और बढ़ती है जब बच्चा कॉलेज में जाता है
अपने वजन के जितना पैसा बाप कॉलेज में जमा करवाता है
फिर छिनते देख अपने हकों को विद्यार्थी करते खुद पे वार
उखाड़ना होगा हमें इसे भी क्योकि यह है एक खरपतवार
कहानी ख़त्म नहीं हुई है यहाँ से कतार तो शुरू हुई है
राशन के लिए राशन कार्ड जरूरी है तो सरकारी दफ्तर एक मज़बूरी है
सरकारी दफ्तर असल मंदिर हैं जहाँ ये भगवन करते मनमानी
देखकर लम्बी कतार वहां पर आम आदमी करता नादानी
कतार से हटके पिछले द्वार से सटके,फाइल के साथ धन लड्डू चढ़ाता
भगवन के प्रसन्न होनेपर घंटी बजाकर घर को जाता
सरकारी काज अगर कोई हो यही क्रिया दोहरानी होगी
नहीं करोगे ऐसा अगर तुम देखना फिर कैसी परेशानी होगी
बात एक मुददे की नहीं इसपे करना होगा गहन विचार
विकास दर को रोक रही है क्योकि यह है एक खपतवार
सरकार की पारित की नीतियों पर अक्सर उठते रहें सवाल
और इनके खिलाफ जाने की आम आदमी की क्या है मज़ाल
स्कूल की परीक्षा तो पता नहीं चुनाव की ऐसी तैयारी करते है
लूटा हुआ धन जनता का उन दिनों उनपे व्यय करते है
है कितने दानवीर सज्जन ये कहीं खाली हाथ नहीं जाते है
किसी को चूल्हा, किसी को साईकिल, किसी को घर का वादा कर आते है
लोभ लालच में फस कर आदमी चुन लेता अपनी मौत का सामन
फिर उठाता बोझ ग़ुरबत का तिल तिल मरता सुबहो शाम
समझता नहीं अपनी शक्ति को हर बार करता पैर पे वार
उखाड के फैंक दो लालच को, क्योकि है यह एक खपतवार
अपने हितों की रक्षा के लिए हम करते है जिनपे विश्वास
वही लोग करते रहते है अक्सर हमसे विश्वासघात
है दहशत इतनी थाने कचहरी की डर के मारे कोई नाम नहीं लेता
फस जाये कोई चंगुल में तो फिर आराम का कोई नाम नहीं लेता
आम आदमी थाने में तो रपट दर्ज करवाने से डरता है
इसलिए वो बहु-बेटियों को घर में चुप रहने को कहता है
यह कानून व्यवस्था और कचहरी लोगों पे है कहर बरपाता
दादा जी की ज़मीन का मसला फिर पोता है लड़ने को जाता
यह रोग नहीं, है कोई विषाणु जो कर रहा निरन्तर अपना विस्तार
कीटनाशक छिड़कना होगा क्योकि है यह एक खपतवार
इस नवचेतन युग में भी हम करते है घरों में अत्याचार
बेटे की लालसा में कितनी बेटीयों को देते है कोख में मार
ग़र बच गई समाज में जिन्दा तो फिर क्या क्या फ़र्ज़ निभाती है ये
पिला के अमृत मृत समाज को खुद विष पी कर रह जाती है ये
होता रहता इनका शोषण इस बैरी समाज के हर रूप में
देती रहती भिन्न भिन्न परीक्षा, माँ, बेटी, प्रेमिका बहू के रूप में
परदे से निकल कर जब इस समाज में कुछ करने की चाह होती है
सिमट कर जाती, नज़र झुकाती क्योकि उनकी बदन पर निगाह होती है
क्या पागलपन रहता उनपे क्यों हवस है रहती उनपे सवार
आओ ईलाजे मिलजुल कर हम क्योकि है यह एक खपतवार
मन की शांति पाने को जब हम मंदिर मस्जिद को जाते है
प्रभु के दूत निवारण हेतु कई तरह के उपाय बताते है
गृह, नक्षत्र, कलह,कलेश में आम आदमी फस के रह जाता
दुखों से मुक्ति पाने खातिर अंधविश्वासों में धस के रह जाता
धर्म के ठेकेदारों ने खोले है जगह जगह पर कई पंडाल
और आस्था के अंधों की वहां पे रहती है अब मारोमार
मसीह हो, मज़ार हो या कोई दरबार, डरा डरा के लोगो को करते है व्यापार
आँखे बंद है इस चकाचौंध व्यापार में, राख़ तक बिक जाती है अब उनके प्रशाद में
अंध विश्वास की पट्टी हटाओ खोल के देखो मन के द्वार
सड़ रही है आस्था इनसे क्योकि यह है एक खरपतवार
आरज़ू-ए-अर्जुन
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