" मन और मानव "
यह नदी का किनारा और
दूर तक फैले सब्ज़, बेल-बूटे
हवाओ में नमी, भीनी सी खुशबू
फूल कलियाँ शाख से टूटे
मानो दिल को जैसे बहलाती है
पत्थरों से टकराता हुआ ये
चांदी सा चमकीला पानी
कलकल करती इसकी लहरें
और नृतमई इसकी रवानी
बस ऐसे ही कहीं गुजरती जाती है
वादियों में मधुर सा शोर
जो फैला है मेरे चारो ओर
मन को कर रहा है सराबोर
एक अजीब सी राहत का
एहसास करवाती है
पेड़ों पे सजे हुए घोंसले
और अजनबी परिंदों की चहक
ख़ुशी से हवा में झूलते पेड़ पौधे
और हवा में रिसती उनकी महक
एक रुहानगी का तारुफ़ करवाती है
किनारे से चोटी तक फैली हुई
ये चट्टानों की ठोस दीवार
और उनसे गले मिलने को
ये नाज़ुक बेल-बूटे कितने बेकरार
अंततः चोटी तक पहुँच भी जाती है
फिर दूर किसी शिकारे से एक
आवाज़ फ़िज़ा में घुल जाती है
नदी, वन, उपवन को जैसे
एक नशीली तरंग मिल जाती है
जिसमे ये कायनात सिमट सी जाती है
फिर सूरज ढलते ही उसी शिकारे से
फिर से एक आवाज़ आती है
पर वन, उपवन और नदी है शांत
परिंदों की आवाज भी थम जाती है
शायद बिरह का दुःख सुर में पाती है
नदी में अब नहीं हलचल है
पर दिल में मचा एक कोलाहल है
कदम खींच रहे मुझे शहर में
जहाँ घुला है ज़हर इसकी सहर में
दम तोड़ कर शामे रातों में ढल जाती है
दिन के उजाले में तो तराने है
वही रात में सिसक जाने है
शिकन न दिख जाए माथे पर
इस लिए होटों पे मुस्काने है
यहाँ ऐसी ही ज़िंदगी तो जी जाती है
यहाँ के सुबह के सूरज से मेरी
रातें सुलग सी जाती है
और बंधनो की गर्म हवा
चिंगारीयों को और भी भड़काती है
शरीर तो मुर्दा है ही, आत्मा भी मर मर जाती है
आरज़ू-ए-अर्जुन
यह नदी का किनारा और
दूर तक फैले सब्ज़, बेल-बूटे
हवाओ में नमी, भीनी सी खुशबू
फूल कलियाँ शाख से टूटे
मानो दिल को जैसे बहलाती है
पत्थरों से टकराता हुआ ये
चांदी सा चमकीला पानी
कलकल करती इसकी लहरें
और नृतमई इसकी रवानी
बस ऐसे ही कहीं गुजरती जाती है
वादियों में मधुर सा शोर
जो फैला है मेरे चारो ओर
मन को कर रहा है सराबोर
एक अजीब सी राहत का
एहसास करवाती है
पेड़ों पे सजे हुए घोंसले
और अजनबी परिंदों की चहक
ख़ुशी से हवा में झूलते पेड़ पौधे
और हवा में रिसती उनकी महक
एक रुहानगी का तारुफ़ करवाती है
किनारे से चोटी तक फैली हुई
ये चट्टानों की ठोस दीवार
और उनसे गले मिलने को
ये नाज़ुक बेल-बूटे कितने बेकरार
अंततः चोटी तक पहुँच भी जाती है
फिर दूर किसी शिकारे से एक
आवाज़ फ़िज़ा में घुल जाती है
नदी, वन, उपवन को जैसे
एक नशीली तरंग मिल जाती है
जिसमे ये कायनात सिमट सी जाती है
फिर सूरज ढलते ही उसी शिकारे से
फिर से एक आवाज़ आती है
पर वन, उपवन और नदी है शांत
परिंदों की आवाज भी थम जाती है
शायद बिरह का दुःख सुर में पाती है
नदी में अब नहीं हलचल है
पर दिल में मचा एक कोलाहल है
कदम खींच रहे मुझे शहर में
जहाँ घुला है ज़हर इसकी सहर में
दम तोड़ कर शामे रातों में ढल जाती है
दिन के उजाले में तो तराने है
वही रात में सिसक जाने है
शिकन न दिख जाए माथे पर
इस लिए होटों पे मुस्काने है
यहाँ ऐसी ही ज़िंदगी तो जी जाती है
यहाँ के सुबह के सूरज से मेरी
रातें सुलग सी जाती है
और बंधनो की गर्म हवा
चिंगारीयों को और भी भड़काती है
शरीर तो मुर्दा है ही, आत्मा भी मर मर जाती है
आरज़ू-ए-अर्जुन
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