" ये कौन सा शहर है "
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
सरहदो में कैद बस रंगीन सी इमारतें
और इनमें बस्ते ये रबड़ के इंसान,
जो चलते है, फिरते है, जागते है, सोते है
और फिर इस भीड़ का हिस्सा हो जाते है
बहुत काली सी रात और धुंधली सी सहर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
सुबह के पत्तों की तरह ताज़गी है चेहरे पर
मगर दोपहर गए झुलस से जाते है कहीं
ये सपनो में डूबी आँखें है या आँखों में तैरते सपने
ये बताना मुश्किल है कि कौन सा सपना पहले
ये अच्छा, यह बुरा बस बदल सी जाती नज़र है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
क़दमों की बात करें तो ये थके नहीं है
बस बेइरादे भटकते रहते है दर बदर
ये कंधे लगातार नीचे की ओर झुके से रहते है
और हथेलियाँ पसीने से तर रहती है
कब सुबह होगी कब शाम ढलेगी इसकी नहीं खबर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
घरों की दीवारों पे लटकती है कुछ रंगीन तस्वीरें
और हर कोना गुलदानों से सजा रखा है
महकता है घर आँगन बाज़ारी इत्र फुलेलों से
मगर रिश्तों में कहीं भी कोई खुशबु नहीं है
ये बेमायने से रिश्ते, बेसबब और बेअसर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
दिल को टटोलते हैं तो कुछ ऐसी उलझने दिखाई देती है
जो बोलती तो कुछ भी नहीं मगर सुनाई देती है
मन की तारें तनी सी खिची सी जा रही है
रबड़ की तरह पतली,और पतली फिर टूटती सी जा रही है
क्या पाना है, कहाँ जाना है, हर कोई बेसबर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
ज़िंदगी से थक हार के जब ये सुकून से सोना चाहे
तो जमीन के नीचे भी सुकून नहीं एक शोर सा है
कब्रों को अमीरी गरीबी के हिसाब से बाँट रखा है
किसी की कब्र संगमरमर से सजी है, किसी पे धूल पड़ी है
दो गज़ कफ़न,ज़मीन के लिए कितना करना पड़ा सफर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
आरज़ू-ए-अर्जुन
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
सरहदो में कैद बस रंगीन सी इमारतें
और इनमें बस्ते ये रबड़ के इंसान,
जो चलते है, फिरते है, जागते है, सोते है
और फिर इस भीड़ का हिस्सा हो जाते है
बहुत काली सी रात और धुंधली सी सहर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
सुबह के पत्तों की तरह ताज़गी है चेहरे पर
मगर दोपहर गए झुलस से जाते है कहीं
ये सपनो में डूबी आँखें है या आँखों में तैरते सपने
ये बताना मुश्किल है कि कौन सा सपना पहले
ये अच्छा, यह बुरा बस बदल सी जाती नज़र है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
क़दमों की बात करें तो ये थके नहीं है
बस बेइरादे भटकते रहते है दर बदर
ये कंधे लगातार नीचे की ओर झुके से रहते है
और हथेलियाँ पसीने से तर रहती है
कब सुबह होगी कब शाम ढलेगी इसकी नहीं खबर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
घरों की दीवारों पे लटकती है कुछ रंगीन तस्वीरें
और हर कोना गुलदानों से सजा रखा है
महकता है घर आँगन बाज़ारी इत्र फुलेलों से
मगर रिश्तों में कहीं भी कोई खुशबु नहीं है
ये बेमायने से रिश्ते, बेसबब और बेअसर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
दिल को टटोलते हैं तो कुछ ऐसी उलझने दिखाई देती है
जो बोलती तो कुछ भी नहीं मगर सुनाई देती है
मन की तारें तनी सी खिची सी जा रही है
रबड़ की तरह पतली,और पतली फिर टूटती सी जा रही है
क्या पाना है, कहाँ जाना है, हर कोई बेसबर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
ज़िंदगी से थक हार के जब ये सुकून से सोना चाहे
तो जमीन के नीचे भी सुकून नहीं एक शोर सा है
कब्रों को अमीरी गरीबी के हिसाब से बाँट रखा है
किसी की कब्र संगमरमर से सजी है, किसी पे धूल पड़ी है
दो गज़ कफ़न,ज़मीन के लिए कितना करना पड़ा सफर है
ये कौन सा शहर है न रास्ता न डगर है
आरज़ू-ए-अर्जुन
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