" चलो सफर करते है "
इस ज़िंदगी के रेले में हर कोई मुसाफिर
हर किसी के कंधे बोझिल, माथे पे शिकन
और चल रहा है पथरीली आँखों को लिए
पैर के पंजे एक दूसरे से बिखर गए हैं।
मगर परवाह किसे है ज़रा दम लेने की
ठहर कर ज़रा मुडके देखने की।
माथे पर पसीना मगर सीना तना है
आँखों में झुंझलाहट मगर राह पर बना है
कोई आवाज़ अब, कानों तक नहीं पहुँचती
अब कोई आहट दिल को दस्तक नहीं देती।
हाँ कुछ सुनाई देती है तो एक धुन,
एक सनक, कि मंजिल पे पहुंचना है.
चेहरों को आँखों से देखो तो रूहानियत है
और दिल से देखो तो लब है पड़ेंगें।
हम आधुनिक लिबास पहने ज़िंदगी से बेलिबास है
ये चकाचक रौशनी क्या सच में ख़ास है
एक पतंगे की तरह इस रौशनी में गुमराह है
ये जानते हुए भी..
कि ज़्यादा रौशनी आँखे बंद कर देती है
दिमाग मंद कर देती है फिर भी दिल,
दिमाग से परे उस रौशनी में लिपटना चाहता है
और फिर क्या, इस सफ़र में तमाम उम्र बस
चलते रहो यां जलते रहो,
मंजिल मिले न मिले बस चलते रहो
थक कर बैठोगे तो लोग हसेंगें ....
कोई हमराह, हमदर्द नहीं है इस सफर में
बस चल कर, उड़ कर, दौड़ कर या उड़कर
आगे निकलना है क्या हासिल होगा न होगा
बस चलते रहो.....
ता उम्र इस सफर में थक कर भी थकते नहीं
कलमें सफ़ेद हो जाती है मगर हटते नहीं। और..
गर कदम कमज़ोर हो जाएँ, शिथिल हो जाएँ
तो जाते-जाते ये सफर किसी दूसरे को सौंप जाते है.
क्या बेहूदगी है यह ? मन ऊबता नहीं ?
इस सफर से क्या बोरियत महसूस नहीं होती ?
क्या मंजिल को पाना यही ज़िंदगी है ?
और क्या करोगे फिर इसे हाथों में थाम कर ?
पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर क्या नाचता है कोई ?
नहीं। अचानक से मन में सवाल उठने लगते है
इस सफर को करते करते एक उम्र गवा दी
लोगों को दिखाते दिखाते सब परदे हटा दिए
जिनके लिए ये सफर शुरू किया था
वो खुद भी तो आज सफर में सफर बन गए
फिर मन सोचता है अब क्या ?
लौट कर घर ही तो चलना है
ये ज़िंदगी का दुष्चक्र चक्र लगाता है
और हम गुमराह से बस घूमते रहते हैं
क्यों न इस चक्र में थोड़ी थोड़ी देर बाद
कोई चिन्ह अंकित करें।
और बैठ कर उन क़दमों की दूरी अंदाज़ें,
एक दूसरे से बातें करें
और बढ़ते मुसाफिरों को हौंसला दे कर विदा करें .
ये पंछी, नदिया,झरनें, हवाएं सभी सफर करते हैं
क्या चुप देखा है कभी इन्हे ?
पंछियों की चहचहाहट, नदियों की कलकल,
झरनों की वीणा और हवाओं की सरसराहट
अक्सर बातें करती है
इससे उनमें एक ताज़गी और रवानगी भरी रहती है
ठीक उनसे उल्ट हम चुप, शांत और गुप्त रह कर
आगे निकलने की जल्दी में खुद को
अकेलेपन की दलदल में धकेल देते है.
अब जरुरत है तो मंजिल के उन रहस्यों को जानने की
कोई भी मंजिल इंसान के फनाह हुई उम्र और
उसके त्याग से बड़ी नहीं हो सकती
अगर ज़िंदगी का एक अछूता लम्हा यूँ ही बिछड़ गया
तो आने वाले हर लम्हे की कड़ी नहीं जुड़ पाएगी
तो क्यों न इस सफर को थोड़ा सजीव थोड़ा रंगीन बनायें
क्यों न अपना दिल खोल दें और बाहें फैला कर
इन राहों का इस्तकबाल करें।
इस राह पर चलने वाला कोई मुसाफिर
अब अजनबी न रहे उनकी थकन
अपनी थकन सी लगे
उनकी मुस्कुराहट अपनी ख़ुशी सी लगे
सबसे आगे तन्हा चलने से अच्छा है कि
सबके साथ कारवां में चलें .
देखना जब मंजिल करीब होगी
तो जशन मनाने वाले कितने हाथ कितनी मुस्काने
तुम्हारे साथ होंगी
चलो ऐसे सफर की शुरुआत अभी करते है
चलो सफर करते है, चलो सफर करते है .
आरज़ू-ए-अर्जुन
इस ज़िंदगी के रेले में हर कोई मुसाफिर
हर किसी के कंधे बोझिल, माथे पे शिकन
और चल रहा है पथरीली आँखों को लिए
पैर के पंजे एक दूसरे से बिखर गए हैं।
मगर परवाह किसे है ज़रा दम लेने की
ठहर कर ज़रा मुडके देखने की।
माथे पर पसीना मगर सीना तना है
आँखों में झुंझलाहट मगर राह पर बना है
कोई आवाज़ अब, कानों तक नहीं पहुँचती
अब कोई आहट दिल को दस्तक नहीं देती।
हाँ कुछ सुनाई देती है तो एक धुन,
एक सनक, कि मंजिल पे पहुंचना है.
चेहरों को आँखों से देखो तो रूहानियत है
और दिल से देखो तो लब है पड़ेंगें।
हम आधुनिक लिबास पहने ज़िंदगी से बेलिबास है
ये चकाचक रौशनी क्या सच में ख़ास है
एक पतंगे की तरह इस रौशनी में गुमराह है
ये जानते हुए भी..
कि ज़्यादा रौशनी आँखे बंद कर देती है
दिमाग मंद कर देती है फिर भी दिल,
दिमाग से परे उस रौशनी में लिपटना चाहता है
और फिर क्या, इस सफ़र में तमाम उम्र बस
चलते रहो यां जलते रहो,
मंजिल मिले न मिले बस चलते रहो
थक कर बैठोगे तो लोग हसेंगें ....
कोई हमराह, हमदर्द नहीं है इस सफर में
बस चल कर, उड़ कर, दौड़ कर या उड़कर
आगे निकलना है क्या हासिल होगा न होगा
बस चलते रहो.....
ता उम्र इस सफर में थक कर भी थकते नहीं
कलमें सफ़ेद हो जाती है मगर हटते नहीं। और..
गर कदम कमज़ोर हो जाएँ, शिथिल हो जाएँ
तो जाते-जाते ये सफर किसी दूसरे को सौंप जाते है.
क्या बेहूदगी है यह ? मन ऊबता नहीं ?
इस सफर से क्या बोरियत महसूस नहीं होती ?
क्या मंजिल को पाना यही ज़िंदगी है ?
और क्या करोगे फिर इसे हाथों में थाम कर ?
पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर क्या नाचता है कोई ?
नहीं। अचानक से मन में सवाल उठने लगते है
इस सफर को करते करते एक उम्र गवा दी
लोगों को दिखाते दिखाते सब परदे हटा दिए
जिनके लिए ये सफर शुरू किया था
वो खुद भी तो आज सफर में सफर बन गए
फिर मन सोचता है अब क्या ?
लौट कर घर ही तो चलना है
ये ज़िंदगी का दुष्चक्र चक्र लगाता है
और हम गुमराह से बस घूमते रहते हैं
क्यों न इस चक्र में थोड़ी थोड़ी देर बाद
कोई चिन्ह अंकित करें।
और बैठ कर उन क़दमों की दूरी अंदाज़ें,
एक दूसरे से बातें करें
और बढ़ते मुसाफिरों को हौंसला दे कर विदा करें .
ये पंछी, नदिया,झरनें, हवाएं सभी सफर करते हैं
क्या चुप देखा है कभी इन्हे ?
पंछियों की चहचहाहट, नदियों की कलकल,
झरनों की वीणा और हवाओं की सरसराहट
अक्सर बातें करती है
इससे उनमें एक ताज़गी और रवानगी भरी रहती है
ठीक उनसे उल्ट हम चुप, शांत और गुप्त रह कर
आगे निकलने की जल्दी में खुद को
अकेलेपन की दलदल में धकेल देते है.
अब जरुरत है तो मंजिल के उन रहस्यों को जानने की
कोई भी मंजिल इंसान के फनाह हुई उम्र और
उसके त्याग से बड़ी नहीं हो सकती
अगर ज़िंदगी का एक अछूता लम्हा यूँ ही बिछड़ गया
तो आने वाले हर लम्हे की कड़ी नहीं जुड़ पाएगी
तो क्यों न इस सफर को थोड़ा सजीव थोड़ा रंगीन बनायें
क्यों न अपना दिल खोल दें और बाहें फैला कर
इन राहों का इस्तकबाल करें।
इस राह पर चलने वाला कोई मुसाफिर
अब अजनबी न रहे उनकी थकन
अपनी थकन सी लगे
उनकी मुस्कुराहट अपनी ख़ुशी सी लगे
सबसे आगे तन्हा चलने से अच्छा है कि
सबके साथ कारवां में चलें .
देखना जब मंजिल करीब होगी
तो जशन मनाने वाले कितने हाथ कितनी मुस्काने
तुम्हारे साथ होंगी
चलो ऐसे सफर की शुरुआत अभी करते है
चलो सफर करते है, चलो सफर करते है .
आरज़ू-ए-अर्जुन
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