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" मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ "

" वो चौराहा "

मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ
जहाँ से ये सफर शुरू किया था
बड़ी मुश्किल से एक राह चुनी थी
बड़ा लम्बा सफर तैय किया था
मगर अब क्या ?
फिर से एक राह चुननी पड़ेगी ?
फिर से एक सफर तैय करना पड़ेगा ?
मैं इस राह को तो जानता हूँ  !
इसका आखरी मोड़ दिल से होकर गुजरता है
वहाँ थकान जैसे ख़त्म सी हो जाती है
और दिल वो ख्वाब बुनने लगता है
जिसका तसव्वर उसने कभी किया ही नहीं
एक उलझन सी होने लगती है हर घडी
और ये मन उलझना भी तो चाहता है इसमें
छोटी छोटी बेकरारी सी रहती है
रोज़ एक नई तैयारी सी रहती है
खिला खिला सा चेहरा चाँद को भी
रोज़ जलने पे मज़बूर कर देता है
हर रात को चुनिंदा सितारों से भर देता है
एक मखमली सा साया होता है
जिस में ये दिल बार बार खोता है
फिर यह राह एक खेल खेलती है
बांध कर हाथ और पैर,
एक अग्निकुंड में ठेलती है
और कुछ वक़्त मिलता है निकलने का
मैं अपनी बेड़ियाँ इसी अग्निकुंड में
पिघलाकर बाहर आया
जब निकला तो देखा, न तो वो राह थी
 न ही वो मखमली सा साया
बस मैं था और एक अँधेरी गली
जिसमें मैं चलता रहा, चलता रहा.. 
मैं फिर से उसी चौराहे पे खड़ा हूँ
जहाँ से ये सफर शुरू किया था

आरज़ू-ए-अर्जुन 

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