ग़ज़ल
अभी दो घूँट तो पी है ज़िंदगी
कैसे मान लूँ के कुछ नहीं रखा
बेमतलब बेकाम की है ज़िंदगी
खुद को नहीं तो औरों को उठा
किसी काम आना भी है ज़िंदगी
मैं यह नहीं कहता ग़म न मिले
सभी रंगों को जीना भी है ज़िंदगी
ये दहकते तराने सुख़न भी हैं
इसे गुन-गुनाना भी है ज़िंदगी
क्यों आरज़ू है अंजुमन की तुम्हें
कभी तन्हा-तन्हा सी है ज़िंदगी
नहीं फ़नाह कर सकता खुदको
फ़क़त मेरी कहाँ रही है ज़िंदगी
है आख़री लम्हा ये समझ के जी
बशर चार दिनों की है ज़िंदगी
कभी बज़्म-ए-नाज़ मुनव्वर राहें
कभी बज़्म-ए-ख़ाक सी है ज़िंदगी
सदा नहीं अंजुम-ए-बहार आरज़ू
कभी गर्दिश-ए-दश्त सी है ज़िंदगी
आरज़ू-ए-अर्जुन
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