ग़ज़ल
ज़िंदगी फर्ज़ और ख्वाब में बट गई है
थोड़ी सी बाकी है, बाकी कट गई है
मैं निकलता तो हूँ रोज़ी की तालाश में
मेरी कोशिशें दिन रात में सिमट गई है
दो और दो अब होती हैं चार रोटीयां
यह पंक्ति मुझे अब ज़ुबानी रट गई है
पहले किसे मनाऊं खा़ब यां फर्ज़ को
एक को मनाया तो दूजी पलट गई है
खाली हाथ कैसे जाऊँ घर को मैं अब
बेगम आस लगाए द्वार पर डट गई है
आज कोई दूसरा बहाना सोचना होगा
मेरे बहानों की झोली कल से फट गई है
डरता हूँ बेटी की मुस्कान खो न जाए
जो मेरी वजह से धीरे धीरे घट गई है
रोज़ रोज़ तो यूं नहीं चलेगा आरज़ू
आज तो वो जैसे तैसे कर पट गई है
आरज़ू-ए-अर्जुन
ज़िंदगी फर्ज़ और ख्वाब में बट गई है
थोड़ी सी बाकी है, बाकी कट गई है
मैं निकलता तो हूँ रोज़ी की तालाश में
मेरी कोशिशें दिन रात में सिमट गई है
दो और दो अब होती हैं चार रोटीयां
यह पंक्ति मुझे अब ज़ुबानी रट गई है
पहले किसे मनाऊं खा़ब यां फर्ज़ को
एक को मनाया तो दूजी पलट गई है
खाली हाथ कैसे जाऊँ घर को मैं अब
बेगम आस लगाए द्वार पर डट गई है
आज कोई दूसरा बहाना सोचना होगा
मेरे बहानों की झोली कल से फट गई है
डरता हूँ बेटी की मुस्कान खो न जाए
जो मेरी वजह से धीरे धीरे घट गई है
रोज़ रोज़ तो यूं नहीं चलेगा आरज़ू
आज तो वो जैसे तैसे कर पट गई है
आरज़ू-ए-अर्जुन
Comments
Post a Comment