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Aarzoo ke dohe..

आरज़ू फकीर के दोहे

नमन सबको

सत्ता के आकाश पर,  कागा अब मंडराए
वोट दिया जब काग को, हंस कहां से आए

झूठ को बोलूँ सत्य मैं, सत्य को बोलूँ झूठ
सत्य अगर मैं बोल दूं , ये  जग  जाये  रूठ

भूधर  जलता  खेत  में,  खून  पसीना  होय
माटी माटी हो गया, जग से मिला क्या तोय

दो  निवाले  अन्न  को,  तरसे  हैं  कुछ  पेट
कुछ तारे गिन के सो गये,कुछ आंसू पी के लेट

पंछी के जब पर  हुए,  उड़ा छोड़ कर नीड़
जिसने उसको पर दिए,  भूला उसकी पीड़

कहता है  ये  आरज़ू,  सुनो लगा  कर ध्यान
गुण बक्शा भगवान ने, मत करना अभिमान

आरज़ू  (फकीरा)

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चलो योग करें

Aaj ke yoga divas par meri ye rachna..          चलो योग करें एक  काम सभी  हम रोज़ करें योग   करें   चलो   योग   करें भारत  की  पहचान   है   यह वेद-पुराण  का  ग्यान  है  यह स्वस्थ   विश्व   कल्याण   हेतु जन जन का अभियान है यह सीखें    और     प्रयोग    करें योग   करें   चलो   योग   करें मन  को निर्मल  करता  है यह तन को  कोमल  करता है यह है  यह  उन्नति  का  मार्ग  भी सबको  चंचल  करता  है  यह बस  इसका  सद  उपयोग करें योग   करें   चलो    योग   करें पश्चिम   ने   अपनाया   इसको सबने   गले   लगाया    इसको रोग  दोष   से  पीड़ित  थे  जो राम  बाण  सा  बताया  इसको सादा    जीवन   उपभोग   करें योग   करे...

" न रुकना कभी न थकना कभी "

" न रुकना कभी न थकना कभी " इस जहाँ में कौन नहीं, जो परेशान है  है कोई ऐसा, जिसकी राहें आसान है किसी को कम तो किसी को ज्यादा सहना पड़ता है ज़िंदगी जो दे, जैसे रखे, रहना पड़ता है है कदम ज़िंदा तो राहों का निर्माण कर है बाज़ुओं में दम तो मुश्किलों को आसान कर है हौंसला, तो एक लम्बी उड़ान कर है नज़र तो सच की पहचान कर मत सुना ज़िंदगी को मैं थक गया हूँ राह में और बोझिल लगेगी ये  ज़िंदगी इस राह में मत सूखने दे ये पानी अपनी ख्वाबमयी आँखों में सजा तू तमाम सपने जो छुप गए है कहीं रातों में जब रूठ जाए ये चाँद,सितारे और सूरज भी तुमसे मत होना अधीर और एक वादा करना खुद से तू रुक गया तो इन्सां नहीं तू झुक गया तो इन्सां नहीं न थकना कभी न रुकना कभी, कर खुद से बातें पर चुप रह न कभी क्या पता अगले मोड़ पे मंजिल खड़ी हो किसे खबर तेरे क़दमों तले खुशियां पड़ी हों कर नज़र ज़बर और सबर को मज़बूत तुम किसे पता कल तेरे आगे दुनिया झुकी हो . (आरज़ू ) AARZOO-E-ARJUN

"ਖਜੂਰ ਦਾ ਰੁਖ " ( in punjabi)

"ਖਜੂਰ ਦਾ ਰੁਖ " ਮੇਰੇ ਖੇਤ ਦੇ ਵੱਟ ਤੇ ਇਕ ਖਜੂਰ ਦਾ ਰੁਖ ਹੈ ਸ਼ਾਇਦ ਅਣਚਾਹੀ ਬਰਸਾਤ ਵਿੱਚ ਪੂੰਗਰਿਆ ਸੀ ਵੇਖਦੇ ਵੇਖਦੇ ਕਿਸੇ ਗਰੀਬ ਦੀ ਧੀ ਵਾਂਗ ਜਵਾਨ ਹੋ ਗਿਆ ਮੈਂ ਨਾ ਤੇ ਇਸਨੂੰ ਕੋਈ ਖਾਦ ਪਾਈ ਨਾ ਹੀ ਪਾਣੀ ਦਿੱਤਾ, ਇਸ ਰੁਖ ਨੂੰ ਵੇਖ ਕੇ ਮੈਂਨੂੰ ਧੀ ਨਿਮੋ ਦੀ ਯਾਦ ਆਈ ਦੋਵੇਂ ਹੀ ਬੇਜ਼ੁਬਾਨ, ਇਕ ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਇਕ ਚੇਤ ਵਿੱਚ ਨਾ ਉਸਨੇ ਮੇਰੇ ਕੋਲੋਂ ਕਿਸੇ ਚੀਜ ਦੀ ਮੰਗ ਕੀਤੀ ਨਾ ਇਸ ਖਜੂਰ ਨੇ ਹੀ ਮੇਰੇ ਕੋਲੋਂ ਕੁਝ ਮੰਗਿਆ ।                        ਮੇਰੇ ਖੇਤ ਦੇ ਵੱਟ ਤੇ ਇਕ ਖਜੂਰ ਦਾ ਰੁਖ ਹੈ                        ਸ਼ਾਇਦ ਅਣਚਾਹੀ ਬਰਸਾਤ ਵਿੱਚ ਪੂੰਗਰਿਆ ਸੀ ਕਿਨੀਆਂ ਗਰਮੀਆਂ ਵਿੱਚ ਭੁਜਦਾ ਸੜਦਾ ਰਿਹਾ ਸੀ ਇਹ ਪਤਾ ਨਹੀ ਕਿਵੇਂ ਝਲ੍ਹਦਾ ਸੀ ਇਹ ਝਖੜ ਹਨੇਰੀਆਂ ਸਿਰ ਤੇ ਗਿਣਤੀ ਦੇ ਪੱਤੇਆਂ ਦੀ ਪਗੜੀ ਪਾ ਕੇ ਝੁਮਦਾ ਹੈ ਗਾਉਂਦਾ ਹੈ " ਮੇਰਾ ਕਦ ਅਸਮਾਨੀ, ਮੇਰਾ ਕਦ ਅਸਮਾਨੀ " ਇਸਦੀ ਮੁਸਕਾਨ ਨਿਮੋ ਨਾਲ ਕਿੰਨੀ ਮਿਲਦੀ ਹੈ ਗਰੀਬੀ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਰੀ ਦੀ ਪੱਗ ਨੂੰ ਗਿਰਵੀ ਰਖ ਕੇ ਕਰਮਾਂ ਦੀ ਮਾੜੀ ਨੂੰ  ਚੁੰਨੀ ਚੜਾਈ ਸੀ, ਮੈਂ ਤਾਂ ਹਾਲੇ ਅਖਾਂ ਵੀ ਨਹੀ ਝਪਕਾਈਯਾਂ ਸਨ ਉਸਤੇ ਪਤਾ ਨਹੀ ਕਦੋਂ ਜਵਾਨੀ ਆਈ ਸੀ    ...