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" फासला "

" फासला "

चंद फासले दूर हूँ मंजिल से मैं
न जाने क्यों अब बेमायने सा लग रहा है
जब चला था बड़ी उमंग थी, जोश था
क़दमों में इतनी ताकत थी कि
दिन रात चला था मैं
आँखों में इतनी चाहत थी कि
कई रातों से जगा था मैं
हां थका तो नहीं हूँ पर थका सा लग रहा है  

एक अरसा गुजर गया है
मैंने अपने बाल नहीं सँवारे
आइना नहीं देखा
गुनगुनाना सा भूल गया हूँ मैं
अब दिल नहीं धड़कता
वो तस्सवर में बातें याद करके
कई नए रिश्ते बन गए है मेरे
फिर भी क्यों अपना सा नहीं लग रहा है

इस सफर को कहाँ से शुरू किया था
कितने मोड़ मुड़े होंगे
ठीक से याद तो नहीं
बस इतना कि अब वो मोड़ कहीं खो गए है
वो रेशमी सा साया कहीं छूट गया है
वो मखमली सी ममता ओझल है कहीं
अब कोई डांटता नहीं मुझे कानो से पकड़ के
अकेला तो नहीं हूँ पर अकेलापन सा लग रहा है

बड़ी मुश्किल है इन चार क़दमों के फासले को तैय करना
हर कदम पर एक खाई जितना सवाल खड़ा है
मुझे कदम भी बढ़ाना है और ये खाई भी भरनी है
मगर कैसे? बड़ी मुश्किल है यहाँ
मुड़ के देखूं तो करीब कोई नहीं मिलता
सामने देखूं तो मंजिल हस रही है मुझपे
 क्या समझूँ मैं ? कि कामयाब हो गया
जाने क्यों अब मेरा हर कदम लड़खड़ाता सा लग रहा है

चंद फासले दूर हूँ मंजिल से मैं
जाने क्यों अब बेमायने सा लग रहा है


आरज़ू-ए-अर्जुन
       

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