बेहोशी और ख़ामोशी
ज़िक्र आता है यूँ ही कभी-कभार चंद बातों में
घूमते-फिरते चलते-फिरते चंद मुलाकातों में
होती है चाँद-सितारों की दूर-दराजो की बातें
ज़िक्र रंगीन हो यां संगीन हो कहते है मुस्कुराते
बच्चो में शुमार है आजकी आधुनिक तकनीकी
युवाओं में खुमार है पश्चिमी फ़ैशन कला -कृति
संजीदा लोगों ने ले रखा है प्रशासनिक पदभार
देश के ठेकेदार कर रहे है देश का बंटा-धार
पर! ज़िक्र करें जब नारी शोषण, और उनके चोटों पे
बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे
होकर शिक्षित हम कितने बड़े विद्वान बने
कितनी योनियाँ जी कर तब एक इंसान बने
कर दिया तार-2 और हर फ़र्ज़ को शर्मसार
छोड़ दी इंसानियत, क्या सच में इंसान बने
जला दिया ममता को नारी की हर क्षमता को
आँखे खुलने से पहले ही आँखें बंद कर डाली
विकसित होने से पहले ही तोड़ दी वो डाली
दोष यह है,कि वो आज़ाद भारत में पल रही नारी है
इस पुरुष प्रधान देश के कंधों पे वो कितनी भारी है
रीड़ की हड्डी इतनी कमजोर है के भार उठा नहीं सकते
हो गए है वो अमानुष और उसे मानुष बना नहीं सकते
दिखतें है आज साफ़, कई दाग, हमें उन सफ़ेद कोटों पे
बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे
जिन्होंने जन्म ले लिया उन्होंने एक जिंदगी जी है
भर के प्याले में ज़हर और खुद ही घूंट-घूंट पी है
अपने हक़ के लिए उन्हें मीलों दौड़ना पड़ा है
जिसे इस समाज ने सहज ही प्राप्त की है
औरत बन कर उसे इम्तिहान देना ही पड़ता है
उसका इम्तिहान भी एक मर्द ही तय करता है
सफल हुए तो ठीक विफल हुए तो सज़ाएँ है
विफल होने पर कहाँ वो चैन से जी पायें है
एक विराम चिन्ह लग जाता है अंत में उनकी मौतों पे
बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे
समझोते से प्यार करना नारी का सवभाव है
उन्हें पहले, इन्हें बाद में कुछ ऐसा प्रभाव है
दूसरी बार भी कहाँ उनकी बारी आती है
एक ख़तम होते ही उनकी दूसरी जो तैयार हो जाती है
इस तरह हर सपना समझोते से जला दिया जाता है
आंसू न देखे कोई चिरागों को बुझा दिया जाता है
ग़र कभी अपना घर छोड़ उनके घर को अपनाया
तो जिंदगी ने उन्हें एक नया फलसफा दिखलाया
अक्सर चादर -तकिए पे नए निशान बनते गए
अलग-2 आपेक्षाओं से उनके अरमान जलते गए
फिर! जला दिया जिंदा उसे, जब हार गई समझोते से
बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे
है कितने ही सवालिया निशान इस आधुनिक समाज पे
उठ खड़े होते है और भी सवाल मिलने वाले जवाब पे
क्यों कोई अहम् के लिए तेज़ाब डाल कर जला रहा
क्यों कोई वहम के लिए उनके खून से नहा रहा
उस कैंची ने चंद सिक्को के लिए ममता को काट डाला
फ़र्ज़ की वेदी पे नारी को कई हिस्सों में बाँट डाला
यह अँधा कानून है क्यों उनपे शिकंजा नहीं कसता
गुनाह करके निकल जाते है क्यों वो जाल में नहीं फसता
हर खून की गंध छिप लेती है ऐसी गंध लगी है उनके नोटों पे
बस एक ख़ामोशी सी दिखती है अक्सर उनके होटों पे ( आरज़ू )
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