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हमनशीं मंजिल "


हमनशीं मंजिल "

अभी रहने दो इन बाहों में मुझे हमनशीं
बहुत थक गया हूँ मैं सपनो के सफर से
नहीं सुकून है वहाँ ऐसी जुल्फों की छाँव सा
मैं आजतक इतनी गहरी नींद में सोया नहीं हूँ
मेरे हज़ारो सपनो से कहीं अच्छी है ये तेरी आँखे
इन्हे देखकर कुछ और देखने को जी नहीं करता
यह ठंडी हवा यूँ महसूस नहीं होती है मुझे
जैसे तुम्हारी ये सांसे मैं महसूस करता हूँ
तुम उँगलियों से बालों को जब सहलाती हो
लगता है खुदा ने मेरी कोई दुआ क़ुबूल की हो
तेरी ये धड़कने जब मेरे सुर में सुर मिलाती है
तो लगता है फ़िज़ा में मौसिकी का दौर लौट आया हो
और कभी देखता हूँ तुझे मुस्कुराता हुआ हमनशीं
तो दिल ख़ुशी से मुस्कुराता हुआ जशन मनाता है
तेरे आँचल से बंधे है मेरी खुशिओं के कारवां
बहुत अच्छा लगता है इन्हे हवा में लहराता देख
तेरी ऊँगली में पड़े इस अंगूठी की कसम हमनशीं
मेरी ज़िंदगी जैसे कैद हो गयी है इसमें कहीं
ये सूरज चाँद भरता होगा रौशनी इन चूड़ियों में
यू हीं नहीं चमकती रहती है ये दिन- रात
और एक आवाज़ जो मैं सुनता हूँ सोते जागते कभी
ये सावन की बूंदे नहीं तेरी पायल की आवाज़ है
अब तुम ही बता ए हमनशीं मंजिल मेरी
तुझे छोड़ कर मैं किस मंजिल की तलाश करुँ।                               ( आरज़ू )


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"ਖਜੂਰ ਦਾ ਰੁਖ " ( in punjabi)

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