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" मैं खफा सा हूँ "

          " मैं खफा सा हूँ "

मैं ख़फ़ा सा हूँ इस वक़्त से हमनशीं
खुद से गरज भी नहीं अब मुझको।
होटों से जो लफ़ज़ निकलते है
वो सुलगते दिल से पहुँचते है तुझको।
ये बेरुखी बेसबब नहीं है ऐ हमनशीं
ये किस्मत के काँटे,
बेवक़्त ही छिल देते है मुझको।
कैसे सजाऊँ
होटों पे मुस्कान आँखों में सपने
अपनी ही आग से जला रहा हूँ खुद को।
क्यों ख़फ़ा होते हो यूँ बेवफ़ा सा कहकर
मैं आज भी
अपनी राख़ से सजा सकता हूँ तुझको।
मैं दूर पर मज़बूर नहीं हूँ ए हमनशीं
मैं आज भी
तेरी चाहत में मिटा सकता हूँ खुदको।

( आरज़ू-ए- अर्जुन )

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