( रोज़ एक नई जंग )
मैं रोज़ सुबह जब उठता हूँ अपनी ही आँखों में झांकता हूं
एक जंग सी दिखाई देती है अक्सर, रात के सपने से चूर जब,
अपने आप को फिर से समेटता हूँ , खुद को तैयार करता हूँ ,
और फिर से इस जंग में घुल जाता हूँ.
आईने के सामने खुद को देखना, अपने आप से सवाल करना ,
और उन्हें पूरा करने की कसमें खाना एक आदत सी बन गई है
यह समझ में नहीं आता के ज़िन्दगी को जीने के लिए इतनी
ज़ददो ज़हद क्यों ?
हमें अपने सपनो को पूरा करने के लिए किसी दुसरे के अरमान
तोड़ने पड़ते है अपनी राहों की पेचीदगी को हल करने के लिए
किसी दुसरे के ऱास्ते मोड़ने पड़ते है सपने बेचने के लिए सपने
देखने पड़ते है अपनों की ख़ुशी के लिए झूठे वादे करने पड़ते है
मैं अक्सर उम्मीद से भरी निगाहें लेकर लोगों के पास जाता हूँ
लोग मुझे सुनते है, देखते है, समझते है फिर भी निराश होना
पड़ता है मेरे सपने टुटते नहीं तोड़ दिए जाते है मेरी मंजिल की
राहें मुडती नहीं मोड़ दी जाते है
मैं खुद से लड़ता झगड़ता किसी किनारे बैठता हूँ एक पेड़ पर
पड़े एक घोंसले की तरफ देखता हूँ , एक चिड़िया और दो
नन्हे से बच्चे एक दुसरे से कुछ कह रहे है सुन के कुछ अच्छा
लगता है फिर अचानक उस घोंसले के ताने बाने को देखता हूँ
सोचता हूँ वो सैकडों तिनके उस चिड़िया ने एक दिन में तो नहीं चुने होंगे
उन तिनकों को इकठ्ठा करने के लिए कितनी उड़ाने भरी होंगी,
हवा, पानी, आंधी का सामना किया होगा, कितनी दुरी तै की होगी
फिर कही जा के वो घोंसला तैयार किया होगा. मुझे समझ आने लगा
के इस जहां में कुछ भी आसान नहीं होता और कुछ नामुमकिन भी
नहीं होता।
मैंने अपने पास से बिखरे सपनों को फिर से बटोरा उनके टुकड़ों को
जोड़ा और जुट गया इस जंग को जीतने के लिए। सारा दिन कोशिश
की कुछ न मिला निराश से मन में घर जाने की जल्दी थी पर
ख्याल में अपनों की आँखों ने मुझे रोका और कहा "चलो एक कदम और सही".
मैंने फिर कोशिश की और मुझे काम मिला।
सुकून से घर लौटा तो वही आंखे सवाल करती मिली और मेरे दोनों हाथों में जवाब थे
मैं फिर से आज सपने देखूंगा फिर कल अपने आप को तैयार करूँगा
पर हारने से पहले कभी हार नहीं मानूंगा।.………………………। (आरज़ू )
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