बस,पहला क़दम उठाओ हमने खुद को खुद की ही बेड़ियों में जकड लिया है, अपने ही दायरे में सिमट कर रह गए हैं। हमने अपनी सोच समझ को सीमित कर लिया है, अपनी सहूलियत के मुताबिक एक सुरक्षा घेरा बना लिया है, अब उस घेरे से बाहर क़दम रखने में डर लगता है। जितनी ज़रूरत है उतना ही दिमाग चलता है उतने ही पाँव चलते है यहाँ तक कि हमने अपने ख़ाबों को भी दायरे में बांध रखा है। बड़ी अजीब सी बात है, आज ख़ाब किसी और के हैं, देखता कोई और है, पूरा कोई और कर रहा है, कमाल है। पूरी प्रणाली मशीनी हो गई है। आज हम अपने नहीं अपनों के ख़ाब पूरे करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके लिए मेहनत हम नहीं हमारे अपने यानि माँ बाप, बड़े भाई यां बहिन करती हैं, सिर्फ़ ज़रिया हम बनते हैं। इस तरह से हम कुछ बन भी गए तो हमारी योग्यता क्या होगी,हमारी गुणवता क्या होगी। हम दूसरों से साधारण होंगे, दूसरे हमसे ज्यादा अक्लमंद होंगे, उनका तज़ुर्बा हमसे बेहतर होगा। और ऐसा क्यों होता है ? क्योकि हमने अपना पहला कदम खुद नहीं उठाया था। हमने अपनों की बैसाखिया थाम रखी थी। कभी धूप बर्दाश्त ही नहीं की, बारिश में ठिठुर के का...
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