वो गुजरे हुए चंद दिन हर आते जाते लम्हे से एक सवाल करता हूँ के ज़िंदगी क्या है ? वो जो हमें दी जाती है या वो जिसे हम खुद चुनते है देखा जाये तो दोनों चुनाव ही पेचीदा और गुंजलदार से है मगर जब ज़िंदगी को हमारा दिल चुनता है न.. तो किसी चीज़ की परवाह नहीं होती बड़ा मज़ा आता है वो मीठे मीठे गम में दिल खोल के हसने में, रोने में, घंटो इंतज़ार सा होता है आँखो में खुमार सा होता है इस बैरी समाज से बैर और आईने से प्यार सा होता है बड़ा सुकून सा मिलता है हर कायदे क़ानून को तोड़ के मिलने में छुप छुप के आँखें चार करने में और ये हर उम्र में ये एक जैसा ही होता है बड़ी मज़े की बात है न.. सुनहरे से दिन लगते है और मीत सी लगने लगती है रैना... है न.. हम रात की चादर में अनगिनत सितारे जड़ देते है और महबूब कर चेहरा ठीक बीचो बीच सजा देते है खुद से बातें करना, अचानक से हस देना, एक दम से रो देना, घंटो पलक झपकाये सोचते रहना हर वक़्त मिलने की साजिश करना न जाने कितने ऐसे रोग हम दिल को लगा देते है। फिर भी, ये 'प्यार का रोग है मीठा मीठा प्यारा प्यारा ' नहीं। हाँ सबको कभी न कभी ज़िंदगी मे
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